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अहिंसा-अपरिग्रह के
विश्व में शान्ति और सद्भाव तभी स्थापित हो सकता है जब मानव का विकास सही ढंग से हो । मानव-जीवन के विकास में नारी की महत्वपूर्ण भूमिका रही है । मानव का विकास उन चारित्रिक गुणों से होता है जिनकी शिक्षा व्यक्ति को माता के रूप में सर्वप्रथम नारी से ही मिलती है। इसी तरह गृहस्थ-जीवन को संयमित बनाने में भी नारी महत्वपूर्ण भूमिका अदा करती है । इतिहास साक्षी है कि नारी ने
घर, परिवार, समाज और देश के उत्थान में हमेशा पुरुष को सहयोग सन्दर्भ में;
प्रदान किया है । महासती चन्दना, चेलना, राजीमती, मल्लीकुमारी, अंजना, सीता आदि कितनी ही नारियों के आदर्श हमारे सामने हैं, जिन्होंने पुरुष को चरित्र के पथ से विचलित नहीं होने दिया । चरित्र
की सुरक्षा के लिये व्यक्ति का अपरिग्रही और अहिंसक होना अनिवार्य नारी की भूमिका
है। सन्तोष और करुणा के सरोवर में ही सुख के कमल खिलते हैं। अतः नारी पुरुष को परिग्रही और क्रूर बनने से रोकने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा कर सकती है।
जैन शास्त्रों में पाँच व्रतों के अन्तर्गत पाँचवाँ व्रत अपरिग्रह व्रत बतलाया गया है । जैन गृहस्थ जव अपने जीवन में अहिंसा, सत्य, अचौर्य व ब्रह्मचर्य का मर्यादा-पूर्वक पालन करता है तब उसके मन में जीवन के प्रति सन्तोष जागृत होता है । तब वह अपरिग्रही बनता है। अतः व्यक्ति को अपरिग्रही बनाने के लिये आवश्यक है कि परिवार की महिलाएं पुरुषों को पहले इन चार व्रतों को पालन करने की प्रेरणा दें और उसमें सहयोग करें।
व्यक्ति को परिग्रही बनाने में अति और अनुचित इच्छाओं का प्रमुख हाथ होता है। संसार की वस्तुओं का आकर्षण हमारे मन में तरह-तरह की इच्छाएँ पैदा कर देता है । इन इच्छाओं की पूर्ति करने
के लिये व्यक्ति अच्छे-बुरे साधनों का ध्यान नहीं रखता। वह अनुचित श्रीमती सरोज जैन, साधनों से वस्तुओं का संग्रह करने में जुट जाता है। व्यक्ति को इस
एम० ए० कार्य में लगाने में महिलाओं का विशेष हाथ होता है। वे एक दूसरे श्री जवाहर जैन शिक्षण संस्था, की देखा-देखी गहनों, फर्नीचर, प्रसाधन सामग्री, कीमती कपड़ों आदि उदयपुर।
के लिये पुरुषों पर अनुचित दबाव डालती रहती हैं। अपनी आर्थिक स्थिति का ध्यान नहीं रखती। इससे पुरुष मजबूरन गलत साधनों के द्वारा महिलाओं की इच्छाओं की पूर्ति करते हैं। इससे पूरा परिवार संकट में पड़ जाता है। अतः महिलाओं की यह भूमिका
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खण्ड ५/२२
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