________________ पंचम बग/२५२ 3. आसन-यह तीसरा अंग है। जिस स्थिति में देह स्थिर रहे और मन प्रसन्नता का अनुभव करे, वह स्थिति प्रासन है / प्रासन-सिद्धि से तमस् और रजस् का नाश होता है भोर सत्त्वगुण का उदय होता है / 4. प्राणायाम-यह चतुर्थ अंग है। पूरक, रेचक, कुभक आदि प्राणायाम के अनेक प्रकार हैं / इस अंग से इन्द्रियों के दोष नष्ट होते हैं। 5. प्रत्याहार-यह पांचवां अंग है / इससे इन्द्रियाँ अन्तर्मुख होती हैं और चित्त के स्वरूप का अनुसरण करती हैं। इस अंग से योगी जितेन्द्रिय बनता है। 6. धारणा-यह छठा अंग है / चित्त को स्थिर करने में धारणा सहायक होती है / चित्त के बन्धन को ही धारणा माना गया है / (7) ध्यान-यह सप्तम अंग है / वृत्तियों की एकाग्रता को ध्यान कहा गया है / (8) समाधि-यह अष्टम अंग है। अन्त:प्रकाश रूप इस अंग से मात्र ध्येय का स्फुरण अनुभवगम्य होता है। अष्टांगयोग का यह अंतिम सोपान है। अष्टांगयोग का अनुष्ठान करने से मानसिक अशुद्धि का नाश होता है। ज्ञान का अनुभव प्राप्त होता है। हृदय प्रकाशित होता है। सम्यग्ज्ञान की प्राप्ति होती है और दिन-प्रतिदिन उसकी वृद्धि होती है। इस अष्टांगयोग के मार्ग को राजयोग भी कहा जाता है / इस मार्ग पर चलने वाला प्राध्यात्मिक जीवन में गति करने में सफल होता है। 00 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org