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अष्टप्रातिहार्य का संदेश
महत्तरिका गुरुणिजी श्री ललित श्रीजी की शिष्या
साध्वी मणिप्रभा श्री...
जस
अद्भुत वीतराग भाव में मग्न अति निस्पृह तीर्थंकर दिव्यध्वनि : कवियों ने दिव्यध्वनि को अमत की उपमा परमात्मा के पुण्य से आकृष्ट चारों निकाय के देव मिलकर विश्व दी। दिव्यध्वनि का कहना है मुझे दी गई उपमा को मैं बराबर में अलौकिक एवं आश्चर्यकारी अष्ट प्रातिहार्य की रचना करते हैं। सार्थक कर रही हूँ। जैसे अमृत समुद्र में उत्पन्न होता है, एवं ये प्रातिहार्य सामान्य नहीं है अपितु गर्भित रूप से जगत् के लिए जगत् के जीवों को अमर बनाता है उसी प्रकार मैं परमात्मा के अनेक प्रकार की प्रेरणा के श्रोत रूप हैं।
हृदय रूपी गम्भीर समुद्र से उत्पन्न हुई हूँ और मेरा (प्रभुवाणी अशोक वृक्ष प्रातिहार्य : कल्याणमंदिर स्तोत्र में सिद्धसेन ।
का) पान करने वालों को मैं अतिशीघ्र अजरामर (मोक्ष) पद को दिवाकर सरि म. ने आठों प्रातिहार्य के संदेश तथा तीन गढ का प्राप्त कराता है। स्वरूप बताया है। परमात्मा के पीछे स्वदेह से १२ गुना ऊंचा चामर प्रातिहार्य : देवता भगवान के चारों तरफ ८ जोड़ी अशोक नामक वृक्ष है। यह विश्व के लोगों को संबोधित कर कह चामर वीजते है। वीजते समय पहले चामरों को नीचे ले जाया रहा है, कि हे मनुष्या ! तुम परमात्मा के प्रभाव को जानो, जिस जाता है फिर वे ऊपर उठते हैं, इनका संदेश है कि जो वीतराग प्रकार मैं भगवान् के नजदीक होने से शोकरहित हूँ। उसी प्रकार प्रभु के चरणों में भक्तिभाव से शीश झुकाते हैं वे आत्माएँ शुद्ध अगर आप भी भगवान् के सानिध्य में रहेंगे तो शोक रहित हो भाव वाली होकर उर्ध्वगति को प्राप्त करती हैं। जायेंगे। अर्थात् संसारी जीवों के दुःख-संताप टल जाएंगे। जैसे
सिंहासन प्रातिहार्य : उज्जवल देदीप्यमान सवर्णमिश्रित सूर्य के उदय से मात्र मनुष्य ही नहीं, वृक्ष एवं फूल आदि भी रल के बने हुए सिंहासन पर बैठे हुए श्याम वर्ण वाले गम्भीर पत्रसंकोच आदि रूप निद्रा का त्याग कर विकसित होते हैं।
मेघगर्जना के समान देशना को देते हुए पार्श्वनाथ भगवान को उसी प्रकार हे चेतनावान् मनुष्यो परमात्मा के प्रभाव से जैसे
देखकर भव्य प्राणी रूपी मोर खुश होते है। अर्थात् जिस प्रकार
मेरुपर्वत पर गर्जना करते काले बादल को मोर उत्सुकता पूर्वक चेतनावान् आप सभी तो नितरां शोक रहित बन जाओगे अतः ।
देखते हैं। उसी प्रकार सिंहासन कह रहा है कि मेरे ऊपर स्थित परमात्मा की शरण को स्वीकार करो।
प्रभुको भव्य जीव उत्सुकता पूर्वक देखते हैं। सुरपुष्पवृष्टि प्रातिहार्य : परमात्मा के समवसरण में
भामंडल प्रातिहार्य : परमात्मा के मुख का तेज सैंकड़ों देवों के द्वारा चारों तरफ की गई पुष्पवृष्टि में सभी पुष्पों को सर्य से भी अधिक होने की वजह से कोई भगवान के मख को सीधा गिरते देखकर किसी ने आश्चर्यचकित होकर पुष्पों से पूछा नहीं देख सकता। इसलिए देवता प्रभ के तेज का भामंडल में । कि 'वक्ष से गिरने वाले आप सब सीध कैसे पड़ रहे हो?' तब संहार करते हैं, जिससे प्रभ का मख सखपर्वक देखा जाता है। पुष्पा न कहा कि - 'यह तो परमात्मा का प्रभाव है कि इनक ऊपर की ओर प्रसरित प्रभु की कांति से अशोक वृक्ष के पत्तों सानिध्य को प्राप्त करने पर जिन डंठलों ने हमें वृक्ष में जकड़ की कांति आच्छादित हो जाने पर वह राग रहित दिखने लगा। रखा था वे डंठलरूपी बंधन वृक्ष से टूट कर नीचे की तरफ ही इस भामंडल का संदेश है कि हे वीतराग! आपके सानिध्य को गिरे, इससे हम उर्ध्वमुखी बने हैं, इसी प्रकार आप भी प्रभु के प्राप्त करने पर अशोक वक्ष तो क्या, कोई भी सचेतन रागरहित सानिध्य में रहेगें तो आपके भी कर्म रूपी बंधन अथवा संसार बने बिना नहीं रहता। के कोई भी बंधन टूट कर नीचे गिर पड़ेगें एवं आत्मा मोक्ष की
- देवदुंदुभि प्रातिहार्य : भगवान के समवसरण में बजने तरफ ऊर्ध्वगमन करेगी।
वाली देवदुंदुभि तीन जगत् के जीवों को संदेश दे रही है कि अरे!
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