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________________ ८४ : सरस्वती-वरवपुत्र पं. बंशीधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन-ग्रन्थ मेरा खयाल है कि आत्मभूतलक्षणमें भी अनात्मभूतलक्षणकी तरह लक्ष्य और लक्षण वस्तुओंमें एकाधारवृत्तित्वरूप सामानाधिकरण्यका सद्भाव अथवा उसका ज्ञान लक्ष्यलक्षणभावका प्रयोजक नहीं, यदि माना जाय तो नैयायिकको कभी भी गन्धवतीशब्दसे पृथ्वीका भान नहीं होना चाहिये, क्योंकि गंध और पृथ्वीका एक आधार नहीं होनेसे लक्ष्यलक्षणभाव नहीं बन सकता है। और तो क्या जैनी भी यदि नैयायिकके ग्रन्थोंमें गन्धवती शब्दको देखते है तो उसका अर्थ पृथ्वी ही करते हैं क्योंकि वे समझते है कि नैयायिकने गन्धको पृथ्वीका लक्षण स्वीकार किया है उसके यहाँ पृथ्वीका बोधक गन्धवतीशब्द लाक्षणिक है, सांकेतिक नहीं। इसलिये हम यह कैसे कह सकते हैं कि नैयायिकके यहाँ लक्ष्य और लक्षण वस्तुओंमें भिन्नाधिकरणता रहनेसे असाधारणधर्म रूप लक्षणमें असम्भव दोष आता है जबकि उसके मतानुसार हम गन्धको पृथ्वीका लक्षण स्वीकार कर लेते हैं। 'गंध पृथ्वीका लक्षण' हम (जैनी) इसलिये नहीं करते कि इसमें असंभव दोष आता है किन्तु इसलिये नहीं करते हैं कि गन्ध पृथ्वीका असाधारण धर्म नहीं है, कारण कि (जैन मान्यतानुसार) जलादिकमें भी गंध पाया जाता है । लक्षण पदार्थका ज्ञापक माना गया है । नैयायिककी मान्यतानुसार गन्ध पृथ्वीका ज्ञापक सिद्ध होता ही है; भले ही उनमें एकाधिकरण्य न हो। इसलिये इस ढंगसे असम्भव दोष बतलाना संगत नहीं कहा जा सकता है। जो लक्षण लक्ष्यमें न पाया जाय, उसको असंभवित कहते हैं, नैयायिक असाधारणधर्मको लक्षण मानता है तथा उसके यहाँ गन्ध पृथ्वीका असाधारण धर्म है अर्थात् गन्ध पृथ्वीरूप लक्ष्यमें रहता है तो यह लक्षण बाधितलक्ष्यवृत्ति कैसे हो सकता है ? 'गन्धवज्जलं' यह लक्षण उसके मतसे असंभवित है क्योंकि वह बाधितलक्ष्यवृत्ति है । जैनियोंने लक्षणके आत्मभूत और अनात्मभूत दो भेद स्वीकार किये हैं। नैयायिक इन भेदोको नहीं मानता, तब यदि वह 'गन्धवती पृथ्वी' इस लक्षणको 'दण्डी पुरुषः' की तरह अनात्मभूत स्वीकार कर ले तो फिर उसके यहाँ इस लक्षणमें असंभव दोष कैसे आ सकता है ? इतने पर भी यदि एकाधारवृत्तित्त्वरूप सामानाधिकरण्यके अभावसे यहाँपर असंभव दोष माना जाय तो 'दण्डी पुरुषः' इस अनात्मभूतलक्षणमें वह दोष क्यों नहीं होगा? यह बात विचारने योग्य है। दूध और जल तथा रूप और रसमें जब एकाधारवृत्तित्व है तो वहाँ पर लक्ष्य-लक्षण भावकी आपत्ति बिल्कुल स्पष्ट है । यद्यपि सामानाधिकरण्यको व्यापक और लक्ष्यलक्षणभावको व्याप्य मान लेनेसे यह आपत्ति नहीं रहती, किन्तु विचारना यह है कि ऐसा व्याप्यव्यापकभाव संगत है या नहीं? अनात्मभूतलक्षणमें एकाधारवृत्तित्वरूप सामानाधिकरण्यका अभाव रहनेपर भी लक्ष्य-लक्षणभाव स्वीकार किया गया है, इसलिये लक्ष्य-लक्षणभाव सामानाधिकरण्यका व्याप्य नहीं हो सकता है। आत्मभूतीय लक्ष्य-लक्षणभाव उक्त सामानाधिकरण्यका व्याप्य है अनात्मभतीय नहीं, इस तरहके भेदका कोई नियामक नहीं, जबकि दोनों जगह समानरूपसे लक्ष्य-लक्षणभाव पाया जाता है। आत्मभूतीय लक्ष्य-लक्षणभाव भी सामानाधिकरण्यका व्याप्य सिद्ध नहीं होता है, कारण कि जैसा एकाधारवृत्तित्वरूप सामानाधिकारण्य रूप और रस तथा दूध और जलमें पाया जाता है वैसा अग्नि और उष्णतामें नहीं पाया जाता, इस प्रकार जब अग्नि और उष्णतामें सामानाधिकरण्याभाव ही सिद्ध होता है तो लक्ष्य-लक्षणभाव सामानाधिकरण्यका व्याप्य कैसे हो सकता है ? रूप और रस तथा दुध और जलमें सामानाधिकरण्य रहते हुए भी लक्ष्य-लक्षणभाव आप स्वीकार नहीं करते है। इससे सुतरां सिद्ध होता है कि लक्ष्य-लक्षणभावका प्रयोजक उक्त सामानाधिकरण्य नहीं, बल्कि दूसरा ही कोई कारण है जिससे पदार्थोमें लक्ष्य-लक्षणभावकी कल्पना की जाती है। इसलिये आत्मभूतलक्षण Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.210115
Book TitleArth me Mul aur uska Samadhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBansidhar Pandit
PublisherZ_Bansidhar_Pandit_Abhinandan_Granth_012047.pdf
Publication Year1989
Total Pages7
LanguageHindi
ClassificationArticle, Grammar, & Logic
File Size658 KB
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