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के पीछे हमारा लोभ, हमारी लालच और भौतिकता के लिये हमारी अतृप्त-आकांक्षाएं ही खडी दिखाई देगी।
जैन आचार-संहिता में परिग्रह की लोलुपता को सभी पापों की जड़ बताते हुए कहा गया - "मनुष्य परिग्रह के लिए ही हिंसा करता है। संग्रह के निमित्त ही झूठ बोलता है और उसी अभिप्राय से चोरी के कार्य करता है। कुशील भी व्यक्ति के जीवन में लोलुपता के माध्यम से ही आता है। इस प्रकार परिग्रह प्रथम-पाप है। उसी के माध्यम से शेष चार पाप जीवन में प्रवेश पाते हैं।
संग णिमित्तं माई, भणई अलीकं, करेन चोरिकं, सेवइ मेहुण-मिच्छं, अपरिमाणो कुणदि जीवो।
समणसुत्त पूज्यपाद स्वामी ने धन-वृद्धि की कामना करने वाले पुरुषों पर व्यंग्य करते हुए कहा है - 'आपकी परिग्रह-प्रियता अनोखी है। जैसे जैसे काल बीतता जाता है, वैसे ही वैसे ब्याज आदि के द्वारा आपकी धन-वृद्धि हो रही है जो आपको अत्यन्त प्रिय है। इस तृष्णा में आप यह भी भूल जाते हैं कि ज्यों-ज्यों काल व्यतीत, होता है, त्यों त्यों आपकी सम्पत्ति भले ही बद रही हो, परन्तु उसी अनुपात में आपकी आयु क्षीण हो रही है। इसके बाद भी आप अपनी प्रति-क्षण खिरती हुई आयु का कोई सार्थक उपयोग नहीं करना चाहते, यह जानते हुए भी धन की ही आकांक्षा में लगे हए हैं। इससे सिद्ध होता है कि आप धन सम्पदा को अपने प्राणों से भी अधिक चाहते है।"
__ आयुवृद्धिक्षयोत्कर्षहेतुं, कलस्य निर्गमम् वांच्छतां धनिनामिष्ट, जीवितात्सतरां धनम् ।।
इष्टोपदेश/१५ वास्तव में हमारे आर्थिक चिन्तन में कहीं न कहीं कोई भूल अवश्य हो रही है। लगता है कि हम अपने जीवन का कोई मूल्य उसके साथ जोड़ नहीं पा रहे हैं। उदाहरण के लिए कोई एक मकान बन रहा है। उसके लिये हमारे पास पूरा तखमीना तैयार है। भूमि के मूल्य से लगाकर ईट, सीमेंट, और वह सब कुछ, जो भवन के निर्माण में लगने वाला है, उस सब की कीमत जोड़कर हमने पूरे मकान की लागत का अनुमान कर लिया है। परन्तु उसे बनवाते समय हमारे जीवन के जो अनमोल वर्ष, या महीने व्यय होने वाले हैं, उसका कोई अनुमानित मूल्य हमारी लागत में शामिल नहीं है।
मकान बनते समय, यदि कई कारीगर मिलकर बनायें तब भी, जब तक एक ईट रखी जाती है, उतनी देर में हमारी एक श्वांस भी निकल जाती है। इस श्वांस का मूल्य किस खाते में जोड़ा गया है? कभी विचार करें कि एक-एक ईट के साथ व्यय होती हुई श्वांसों की भी एक निश्चित सीमा है। जब भवन की आखिरी ईट के निकलने वाली सांस ही यदि हमारे जीवन की आखिरी सांस हो तो उस मकान की लागत क्या होगी?
संसार में अपना गुजारा करने के लिये परिग्रह जोड़ना और उसका संरक्षण करना आवश्वयक है। परन्तु उसके जाल में उलझ कर, संग्रह को ही अपने जीवन का लक्ष्य बना लेना, कोई बुद्धिमत्ता नहीं है। इच्छाओं की सीमा निर्धारित करके, आकांक्षाओं की असीमता पर अंकुश लगाकर,
सज्ञान के बिना सिद्धी नहीं।
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