________________
(१२) १८ कडवोंकी इस सन्धिमें भगवान् शान्तिनाथके द्वारा वर्णित चरित्र अथवा सदाचारका वर्णन किया गया है ।
(१३) अन्तिम तेरहवीं सन्धिमें भगवान् शान्तिनाथका निर्वाण-गमनका वर्णन १७ कडवकोंमें निबद्ध है ।
इस प्रकार इस काव्यका वर्ण्य विषय पौराणिक है, जो लगभग सभी पौराणिकतासे भरित रचनाओं में एक साँचेमें रचा गया है । इसमें कथा वस्तु उसी प्रकार से सम्पादित है । उसमें कोई विशेष अन्तर परिलक्षित नहीं होता ।
कथा-वस्तुकी दृष्टिसे भले ही काव्य में कोई नवीनता लक्षित न हो, किन्तु काव्य- कला और शिल्पकी दृष्टिसे यह रचना वास्तव में महत्त्वपूर्ण है । आलोच्यमान रचना अपभ्रंशके चरितकाव्योंकी कोटि की है । चरितकाव्य के सभी लक्षण इस कृति में परिलक्षित होते हैं । चरितकाव्य कथाकाव्यसे भिन्न हैं । पुराणकी विकसनशील प्रवृत्ति पूर्णतः इस काव्य में लक्षित होती है । प्रत्येक सन्धिके आरम्भमें साधारण नामसे अंकित संस्कृत श्लोक भी विविध छन्दोंमें लिखित मिलता है । जैसे कि नवीं सन्धिके आरम्भमें
व
सुललितपदयुक्ता सर्वदोषैर्विमुक्ता, जडमतिभिरगम्या मुक्तिमार्गे सुरम्या । जितमदनमदानां चारुवाणी जिनानां परचरितमयानां पातु साधारणानाम् ।
इसी प्रकार ग्यारहवीं सन्धिके आरम्भ में उल्लिखित है
कनकमयगिरीन्द्रे चारुसिंहासनस्थः प्रमुदितसुरवृन्दैः स्नापितो यः पयोभिः । सदिशतु जिननाथः सर्वदा सर्वकामानुपचितशुभराशेः साधु साधारणस्य ॥१०॥ जिस समय शान्तिनाथके मानसमें वैराग्य भावना हिलोरें लेने लगती हैं और वे घर-द्वार छोड़नेका विचार करते हैं तभी स्वर्गसे लोकान्तिक देव आते हैं और उन्हें सम्बोधते हैं ।
चितइ जिणवरुणिय मणि जामवि, लोयंती सुर आगइ तामवि ।
जय जयकार करति णविय सिर, चंगउ भाविउ तिहुयण णेसर । कि भगवन् ! आप तीर्थका प्रवर्तन करनेवाले हैं और भविकजनोंके मोह-अन्धकारको दूर करनेवाले हैं । अपभ्रंश के अन्य प्रबन्धकाव्योंकी भाँति इस रचना में भी चलते हुए कथानकके मध्य प्रसंगतः गीतों की संयोजना भी हुई है । ये गीत कई दृष्टियोंसे महत्त्वपूर्ण हैं । उदाहरण के लिए
Jain Education International
अइ महसत्ती वर पण्णत्ती, मारुयगामिणि कामवि रूविणि । हुयवह थंभणि णीरुणिसुंभणि, अंधीकरणी आयहु हरणी । सयलपवेसिणि अविआवेसिणि, अप्पडिगामिणि विविहविभासिणि । पासवि छेयणि गहणीरोयणि, वलणिद्धाडणि मंडणि ताडणि । मुक्करवाली भीमकराली, अविरल पहयरि विज्जुल चलयरि । देवि पहावs अरिणिट्ठावर, लहुवर मंगी भूमि विभंगी ।
१. कथाकाव्य और चरितकाव्यमें अन्तर जाननेके लिए लेखकका शोधप्रबन्ध द्रष्टव्य है - 'भविसयत्तकहा तथा अपभ्रंश कथा - काव्य', पृ० ७६-७९ ।
२. तित्थपवत्तणु करहि भडारा, भवियहं फेडहि मोहंधारा ।
गय लोयंतिय एम कहेविणु, ता जिणवरिण भरहु घर देविणु । सन्धि ९, कडवक १६ ।
For Private & Personal Use Only
इतिहास और पुरातत्त्व : १६३
www.jainelibrary.org