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एकान्तधर्माऽभिनिवेश-मूला रागादयोऽहंकृतिजा जनानाम् ।
एकान्त हानाच्च स यत्तदेव स्वाभाविकत्वाच्च समं मनस्ते ॥ ५१ ॥
'एकान्तके आग्रहसे एकान्तीको अहंकार हो जाता है और उस अहंकारसे उसे राग, द्वेष, पक्ष आदि हो जाते हैं, जिनसे वह वस्तुका ठीक दर्शन नहीं कर पाता । पर अनेकान्तीको एकान्तका आग्रह न होने से उसे न अहंकार पैदा होता है और न उस अहंकारसे रागादिकको उत्पन्न होनेका अवसर मिलता है और उस हालत में उसे उस अनन्तधर्मा वस्तुका सम्यग्दर्शन होता है; क्योंकि एकान्तका आग्रह न करना --दूसरे धर्मो को भी उसमें स्वीकार करना सम्यग्दृष्टि आत्माका स्वभाव है और इस स्वभावके कारण ही अनेकान्ती के मन में पक्ष या क्षोभ पैदा नहीं होता - वह समताको धारण किये रहता है ।'
अनेकान्त दृष्टिकी जो सबसे बड़ी विशेषता है वह है सब एकान्तदृष्टियोंको अपनाना — उनका तिरस्कार नहीं करना और इस तरह उनके अस्तित्वको स्थिर रखना । आचार्य सिद्धसेनके शब्दोंमें हम इसे इस प्रकार कह सकते हैं
भद्दं मिच्छादंसण - समूह - मइयस्स अमयसारस्स । जिणवयणस्स भगवओ संविग्गसुहाहिगम्मस्स ॥
'ये अनेकान्तमय जिनवचन मिथ्यादर्शनों (एकान्तों) के समूह रूप हैं— इसमें समस्त मिथ्यादृष्टियाँ (एकान्तदृष्टियाँ) अपनी-अपनी अपेक्षा से विराजमान हैं और अमृतसार या अमृतस्वादु हैं । वे संविग्नरागद्वेषरहित तटस्थ वृत्तिवाले जीवोंको सुखदायक एवं ज्ञानोत्पादक हैं । वे जगत् के लिये भद्र हों- उनका कल्याण करें ।'
बन्ध, मोक्ष, आत्मा-परमात्मा, लोक-परलोक, पुण्य-पाप आदिको सम्यक् व्यवस्था अनेकान्तमान्यतामें ही बनती है - एकान्त मान्यतामें नहीं । इसीसे समन्तभद्र स्वामीको देवागममें कहना पड़ा है कि
कुशलाsकुशलं कर्म परलोकश्च न क्वचित् । एकान्त-ग्रह- रक्तेषु नाथ स्वपरवैरिषु ॥
'नित्यत्वादि किसी भी एकान्तमें पुण्य-पाप, परलोक, इहलोक आदि नहीं बनते हैं, क्योंकि एकान्तका अस्तित्व अनेकान्त सद्भावमें ही बनता है और अनेकान्तके न माननेपर उनका वह एकान्त भी स्थिर नहीं रहता और इस तरह वे अपने तथा दूसरेके वैरी - अकल्याणकर्त्ता हैं ।'
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इन्हीं सब बातों से आचार्य समन्तभद्रने भगवान् वीरके शासनको, जो अनेकान्तसिद्धान्त की भव्य एवं विशाल आधारशिलापर निर्मित हुआ है और जिसकी बुनियाद अत्यन्त मजबूत है, 'सर्वोदय तीर्थ — सबका कल्याण करने वाला तीर्थ कहा है
सर्वान्तवत्तद्गुण- मुख्य- कल्पं सर्वान्त-शून्यं च मिथोऽनपेक्षम् । सर्वाऽऽपदामन्तकरं निरन्तं सर्वोदयं तीर्थमिदं तवैव ॥ ६१॥
—युक्त्यनुशासन
'हे वीर जिन ! आपका तीर्थ - शासन समस्त धर्मो- सामान्य विशेष, द्रव्य-पर्याय, विधि - निषेध, एकअनेक, नित्यत्व - अनित्यत्व आदिसे युक्त है और गौण तथा मुख्यकी विवक्षाको लिये हुए ह— एक है- धर्म मुख्य
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