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३५४ : मुनि श्रीहजारीमल स्मृति-ग्रन्थ : द्वितीय अध्याय
लेता है और 'एकान्तवाद' से तत्त्व की, सत्य की पूर्ण झांकी कभी मिल नहीं सकती. अतः जैन-दर्शन का अनेकान्तवाद 'संशयवाद' नहीं प्रत्युत वस्तु तत्त्व का यथार्थ निर्णय करने वाला सुनिश्चितवाद है. अनेकान्तवाद असत्समन्वयवाद नहींः-कुछ आधुनिक शिक्षा-दीक्षा में पले हुए विचारकों का कहना है कि अनेकान्तवाद कोरा समन्वयवाद है. जैन-दर्शन को विचार-सरिणी से, उनका यह कथन एक विशुद्ध भ्रान्ति से अधिक मूल्य महत्व नहीं रखता. अनेकान्तवाद एक ही पदार्थ में अनन्त धर्मों को स्वीकार करता है, इस अपेक्षा से उसे वस्तु के समस्त धर्मों का समन्वय करने वाला कह दिया जाए तो यह दृष्टिकोण अनेकान्तदृष्टि का दूषण नहीं, भूषण है. किन्तु एकान्तवाद की मूल भित्ति पर खड़े किए गये सब धर्म, सब धर्ममार्ग सच्चे हैं, सब धर्ममार्ग मोक्ष के साधन हैं, यह कहना सत्य का गला घोटना है. एकान्त और अनेकान्त का तो अन्धकार तथा प्रकाश की तरह शाश्वत-विरोष है. अनेकान्तवाद असत् बातों का समन्वय कभी नहीं करता. क्या अनेकान्तवाद यह भी सिद्ध करेगा कि आदमी के सिर पर सींग होते भी हैं और नहीं भी होते ? अनेकान्त का समन्वय सत्य की शोध पर आधारित होता है, सत्य के अनुकूल होता है. असत्य के साथ उसका समझौता कभी हो नहीं सकता. अंध समन्वय जीवन में बेमेलपन उत्पन्न कर देगा. वास्तव में सच और झूठ को शब्द-रूप में स्वीकार कर लेना अनेकान्त नहीं है. जैन-धर्म के जिन महान् विचारकों ने अनेकान्त की प्रतिष्ठा की थी, उनका यह प्राशय कभी नहीं था कि विधि-निषेध अथवा आचार-शास्त्र की कुछ समान बातों के आधार पर सब धर्म-मार्ग एक रूप ही हैं, समान ही हैं. ऐसा मानना तो गुड़ गोबर एक करना है. समानता को समानता और असमानता को असमानता स्वीकार करने वाला व्यक्ति ही, अनेकान्त का उपासक हो सकता है. सब धर्मों में प्राचार-विषयक जैसे कुछ समानताएं दृष्टिगोचर होती हैं, उसी प्रकार असमानताएं भी तो बहुत हैं. भक्ष्यअभक्ष्य, पेय-अपेय, कृत्य-अकृत्य की सब मान्यताएं समान ही हैं—यह विचार अविवेकपूर्ण है, सर्वथा भ्रान्त है. एकान्त और अनेकान्त के जीव-अजीव तत्त्वों के सम्बन्ध में किये गये विवेचन विश्लेषण में उत्तरी ध्रुव तथा दक्षिणी ध्रुव जैसा अन्तर होते हुए भी, इनमें परस्पर कोई भेद नहीं, सब धर्मों और प्रवर्तकों में पूर्ण साम्य है, यह कह बैठना अनेकान्तवाद नहीं, मृषावाद है. अनेकान्तवादी का सर्व-धर्म-समन्वय एक भिन्न कोटि का होता है. वह सत्य को सत्य और असत्य को असत्य के रूप में देखता है, मानता है और असत्य का परिहार तथा सत्य का स्वीकार करने के लिए सतत उद्यत रहता है. असत्य का पक्ष न करना और सत्य के प्रति सदा जागरूक रहना ही अनेकान्तवादी की सच्ची मध्यस्थ-दृष्टि है. सत्य-असत्य में कोई विवेक न करना, यह मध्यस्थ-दृष्टि नहीं, अज्ञान-दृष्टि है, जड़-दृष्टि है. सत्य और असत्य दोनों को एक ही पलड़े में रख देना एक प्रकार से असत्य के प्रति पक्षपात और सत्य के प्रति द्वेष ही है. सत्य के प्रति अन्याय न होने पाए और असत्य को प्रश्रय न मिलने पाए, इस अपेक्षा से अनेकान्त-सिद्धान्त के मानने वाले व्यक्ति का मध्यस्थ-भाव एक अलग ही ढंग का होता है. जिसकी स्पष्ट झांकी हम निम्न श्लोक में देख सकते हैं
'तत्रापि न द्वेषः कार्यो, विषयस्तु यत्नतो मृग्यः । तस्यापि च सद्वचनं, सर्वं यत्प्रवचनादन्यत् ॥
-षोडशक १६।१३ दूसरे शास्त्रों के प्रति द्वेष करना उचित नहीं है. परन्तु वे जो बात कहते हैं, उसकी यत्नपूर्वक शोध करनी चाहिए और उसमें जो सत्य वचन है, वह द्वादशांगी-रूप प्रवचन से अलग नहीं है.. अनेकान्तवाद का गाम्भीर्य और मध्यस्थ-भाव दोनों उपर्युक्त श्लोक में मूर्त हो उठे हैं. अनेकान्तवादी के लिए कोई भी वचन स्वयं न प्रमाणरूप है और न अप्रमाणरूप ही. विषय के शोधन-परिशोधन से ही, उसके लिए कोई वचन प्रमाण अथवा अप्रमाण बनता है, चाहे वह स्व-शास्त्र का हो या पर-शास्त्र का, जिसका विषय प्रत्यक्ष और परोक्ष प्रमाण से अविरुद्ध हो, वह वाक्य प्रमाण है और जिसका विषय प्रत्यक्ष आदि प्रमाण से वाधित हो, वह वचन अप्रमाण है. वस्तु अनेक धर्मात्मक है. किसी भी एक धर्म को लेकर कहा गया वचन, उस धर्म की दृष्टि से प्रमाण है; अन्य धर्मों का अपलाप करके कहा हुआ वचन अप्रमाण है, असत्य है, मिथ्या है.
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