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३५० : मुनि श्रीहजारीमल स्मृति ग्रन्थ : द्वितीय अध्याय
भी है. स्याद्वाद में स्यात् का अर्थ है -- किसी अपेक्षा से, किसी दृष्टि से और 'वाद' का अर्थ है - कथन करना. किसी अपेक्षा - विशेष से वस्तु तत्त्व का निर्वचन करना ही 'स्याद्वाद' है.
ही और भी का अन्तरः - अनेकान्तवाद की यह सर्वोपरि विशेषता है कि वह किसी वस्तु के एक पक्ष को पकड़कर यह नहीं कहता कि, "यह वस्तु एकान्ततः ऐसी ही है." वह तो 'ही' के स्थान पर 'भी' का प्रयोग करता है. जिसका अर्थ है. इस अपेक्षा के वस्तु का स्वरूप ऐसा भी है. 'ही' एकान्त है, तो 'भी' वैषम्य एवं संघर्ष के बीज का मूलतः उन्मूलन करके समता तथा सौहार्द के मधुर वातावरण का सृजन करती है. 'ही' में वस्तु-स्वरूप के दूसरे सत्पक्षों का इनकार है, तो 'भी' में इतर सब सत्पक्षों का स्वीकार है. 'ही' से सत्य का द्वार बन्द हो जाता है, तो 'भी' में सत्य का प्रकाश आने के लिए समस्त द्वार अनावृत रहते हैं.
जितने भी एकान्तवादी दर्शन हैं, वे सब वस्तु-स्वरूप के सम्बन्ध में एक पक्ष को सर्वथा प्रधानता दे कर ही किसी तथ्य का प्रतिपादन करते हैं. वस्तु-स्वरूप के सम्बन्ध में, उदारमना होकर विविध दृष्टिकोणों से विचार करने की कला उनके पास प्रायः नहीं होती. यही कारण है कि उनका दृष्टिकोण अथवा कथन 'जन हिताय' न होकर 'जन-विनोदाय' हो जाता है. इस के विपरीत, जैन-दर्शन के तत्त्व पारखी आचार्यों ने खुले मन-मस्तिष्क से वस्तु स्वरूप पर अनेक दृष्टि बिन्दुओं से विचार करके चौमुखी सत्य को आत्मसात् करने का दूरगामी यत्न किया है. अतः उनका दृष्टि कोण सत्य का दृष्टिकोण है, शान्ति का दृष्टिकोण है, जन हित का दृष्टिकोण है, सह-अस्तित्व का दृष्टिकोण है. उदाहरण के लिए, आत्म-तत्त्व को ही ले लीजिए. सांख्य दर्शन आत्मा को कूटस्थ (एकान्त, एकरस ) नित्य ही मानता है. उसका कहना है- 'आत्मा सर्वथा नित्य ही है. बौद्ध दर्शन का कथन है- "आत्मा अनित्य (क्षणिक) ही हैं." आपस में दोनों का विरोध है. दोनों का उत्तर-दक्षिण का रास्ता है. पर, जैन-दर्शन कभी एक करवट नहीं पड़ता. उसका विचार है :- यदि आत्मा एकान्त नित्य ही है, तो उसमें क्रोध, अहंकार, माया तथा लोभ के रूप में रूपान्तर होता हुआ कैसे दीख पड़ता है ? नारक, देवता, पशु और मनुष्य के रूप में परिवर्तन क्यों होता है आत्मा का ? कूटस्थनित्य में तो किसी भी प्रकार पर्याय परिवर्तन अथवा हेर-फेर नहीं होना चाहिए. पर परिवर्तन होता है--यह दिन के उजेले की तरह स्पष्ट है. अतः "आत्मा नित्य ही है"- यह कथन भ्रान्त है. और, यदि आत्मा सर्वथा अनित्य ही है तो यह वस्तु वही है जो मैंने पहले देखी थी ऐसा एक अनुसन्धानात्मक प्रत्यभिज्ञान नहीं होना चाहिए. परन्तु प्रत्य भिज्ञान तो अबाध रूप से होता है, अतः आत्मा सर्वथा अनित्य (क्षणिक) ही है - यह मान्यता भी त्रुटिपूर्ण है. जीवन में एक करवट पड़कर 'ही' के रूप में हम वस्तु स्वरूप का तथ्य - निर्णय नहीं कर सकते. हमें तो 'भी' के द्वारा विविध पहलुओं से सत्य के प्रकाश का स्वागत करना चाहिए. और इस सत्यात्मक दृष्टि से आत्मा नित्य 'भी' है. द्रव्य की दृष्टि से आत्मा नित्य है और पर्याय की दृष्टि से आत्मा अनित्य है.
कहने का तात्पर्य यह है कि, 'ही' के एकान्त प्रयोग से सत्य का तिरस्कार एवं बहिष्कार होता है, आपस में वैर - विरोध, कलह-क्लेश, तथा वादविवाद बढ़ते हैं, और 'भी' से ये सब द्वन्द्व एकदम शान्त हो जाते हैं. 'ही' से संघर्ष एवं विवाद कैसे उत्पन्न हो जाते हैं, इस विषय में एक बड़ा सुन्दर कथानक है. दो आदमी नाच देखने गए. एक अन्धा, दूसरा बहरा. रातभर तमाशा देखकर, सुबह वे दोनों अपने घर वापस लौट रहे थे. रास्ते में एक आदमी पूछ बैठा- क्यों भई, नाच कैसा था ? अन्धे ने कहा- आज केवल गाना ही हुआ है, नाच तो कल होगा. बहरा बोला- 'अरे. आज तो नाच ही हुआ है, गाना तो कल होगा. दोनों लगे अपनी-अपनी तानने मैं तू के साथ खींचतान और कहा-सुनी हो गयी और मार-पीट तक की नौबत आ गयी.
बस, अनेकान्तवाद यही कहता है कि, एक ही दृष्टिकोण अपना कर अन्धे, बहरे मत बनो दूसरे की भी सुनो-दूसरों के दृष्टि- बिन्दु को भी देखो-परखो. तमाशे में हुई थी दोनों चीजें - नाच भी और गाना भी. पर, अन्धा नाच न देख सका और बहरा गाना न सुन सका. आज गाना 'ही' हुआ है अथवा नाच 'ही' हुआ है— इस 'ही' के झमेले में पड़कर दोनों उलझ गए -- दोनों में लड़ाई ठन गई. यदि वे एक-दूसरे को देख लेते समझ लेते और 'ही' के चक्कर में पड़कर
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