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________________ ३४२ : डॉ० महेन्द्रकुमार जैन न्यायाचार्यं स्मृति ग्रन्थ विशाल करके वस्तुके पूर्णरूपको देखो उसमें अभेद एक कोनेमें पड़ा होगा और अभेदके अनन्तों भाई-बन्धु उसमें तादात्म्य हो रहे होंगे । अतः इन ज्ञानलवधारियोंको उदारदृष्टि देनेवाले तथा वस्तुकी झांकी दिखानेवाले अनेकान्त दर्शनने वास्तविक विचारकी अन्तिम रेखा खींची है । और यह सब हुआ है मानस समतामूलक तत्त्वज्ञानकी खोज में | जब इस प्रकार वस्तुस्थिति हो अनेकान्तमयी या अनन्तधर्मात्मिका है तब सहज ही मनुष्य यह सोचने लगता है कि दूसरा वादी जो कह रहा है उसकी सहानुभूतिसे समीक्षा होनी चाहिए और वस्तुस्थितिमूलक समीकरण होना चाहिए। इस स्वीयस्वल्पता और वस्तु अनन्तधर्मता के वातावरणसे निरर्थक कल्पनाओंका जाल टूटेगा और अहंकारका विनाश होकर मानससमताकी सृष्टि होगी, जो अहिंसाका संजीवनबीज होगा । इस तरह मानससमता के लिए अनेकान्तदर्शन ही एकमात्र स्थिर आधार हो सकता है । जब अनेकान्तदर्शनसे विचारशुद्धि हो जाती है तब स्वभावतः वाणीमें नम्रता और परसमन्वयकी वृत्ति उत्पन्न हो जाती है । वह वस्तुस्थितिको उल्लंघन करनेवाले शब्दका प्रयोग ही नहीं कर सकता । इसीलिए जैनाचार्योंने वस्तुकी अनेकधर्मात्मकताका द्योतन करनेके लिए 'स्यात्' शब्दके प्रयोगकी आवश्यकता बताई है । शब्दोंमें यह सामर्थ्य नहीं है जो वस्तुके पूर्णरूपको युगपत् कह सके । वह एक समय में एक ही धर्मको कह सकता है । अतः उसी समय वस्तु विद्यमान शेष धर्मोकी सत्ताका सूचन करने के लिए 'स्यात्' शब्दका प्रयोग किया जाता है । 'स्यात् ' के 'सुनिश्चित दृष्टिकोण', 'निर्णीत अपेक्षा' ये ही अर्थ हैं 'शायद, संभव, कदाचित्' आदि नहीं । 'स्यादस्ति' का वाच्यार्थ है ' स्वरूपादिकी अपेक्षासे वस्तु है ही' न कि 'शायद है' 'संभव है' या 'कदाचित् है' आदि । संक्षेपतः अनेकान्तदर्शन जहाँ चित्तमें समता, मध्यस्थभाव, वीतरागता, निष्पक्षपातताका उदय करता है वहाँ स्याद्वाद वाणी में निर्दोषता लानेका पूरा अवसर देता है। इस तरह अहिंसाकी परिपूर्णता और स्थाfaताकी प्रेरणाने मानसशुद्धिके लिए अनेकान्तदर्शन और वचनशुद्धिके लिए स्याद्वाद जैसी निधियोंको भारतीय संस्कृतिके कोषागार में दिया । बोलते समय वक्ताको सदा यह ध्यान रहना चाहिए कि जो वह बोल रहा है वस्तु उतनी ही नहीं है वस्तु बहुत बड़ी है उसके पूर्णरूपतक शब्द नहीं पहुँच सकते । इसी भावको जताने के लिए वक्ता 'स्यात्' शब्दका प्रयोग करता है । 'स्यात्' यह शब्द विधिलिङ् में निष्पन्न होता है जो अपने वक्तव्यको निश्चित रूपमें उपस्थित करता है न कि संशय रूपमें । जैन तीर्थंकरोंने इस तरह सर्वाङ्गीण अहिंसाकी साधनाका वैयक्तिक और सामाजिक दोनों प्रकारका प्रत्यक्षानुभूत मार्ग बताया। उनने पदार्थों के स्वरूपका यथार्थ निरूपण तो किया ही, साथ ही साथ पदार्थोंके देखनेका, उनके ज्ञान करनेका, उनके स्वरूपको वचन से कहने का नया वस्तुस्पर्शी तरीका बताया। इस अहिंसक दृष्टिसे यदि भारतीय दर्शनकारोंने वस्तुका निरीक्षण किया होता तो भारतीय जल्पकथाका इतिहास रक्तरंजित न हुआ होता, और धर्म तथा दर्शनके नाम पर मानवताका निर्दलन नहीं होता । पर अहंकार और शासनभावना मानवको दानव बना देती है । फिर धर्म और सतका 'अहम्' अतिदुर्निवार होता है । परन्तु युगयुगमें ऐसे ही दानवोंको मानव बनानेके ही लिए अहिंसक सन्त इसी समन्वयदृष्टि इसी समताभाव और इसी सर्वाङ्गीण अहिंसाका सन्देश देते आए हैं । यह जैनदर्शनको विशेषता है । जो वह अहिंसाकी तह पहुँचनेके लिए केवल धार्मिक उपदेश तक ही सीमित नहीं रहा अपितु वास्तविक स्थितिके आधारसे दार्शनिक गुत्थियों को सुलझाने की मौलिकदृष्टि भी खोज सका । न केवल दृष्टि हो किन्तु मन, वचन और काय तोनों द्वारोंसे होनेवाली हिंसाको रोकनेका प्रशस्ततम मार्ग भी उपस्थित कर सका । आज डॉ० भगवानदासजी जैसे मनीषी समन्वय और सब कर रहे हैं । वे वर्षोंसे कह रहे हैं कि समन्वयदृष्टि प्राप्त हुए बिना Jain Education International धर्मोकी मौलिक एकताकी आवाज बुलन्द स्वराज्य स्थायी नहीं हो सकता, मानव For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.210051
Book TitleAnekant darshan ka Sanskruti Adhar
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZ_Mahendrakumar_Jain_Nyayacharya_Smruti_Granth_012005.pdf
Publication Year
Total Pages6
LanguageHindi
ClassificationArticle & Anekantvad
File Size659 KB
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