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अनिवर्चनीय आनन्द का स्रोत : स्वानुभूति : मुनिश्री अमरेन्द्रविजय जी
सूर्योदय से जिस प्रकार अरुणोदय प्रकट होकर रात्रि के अन्धकार को हटा देता है, उसी प्रकार केवल-ज्ञान के सूर्य का उदय हो, उससे पहले अनुभव रूपी अरुणोदय आकर मोह के अन्धकार को हटा देता है । सबेरे प्रकाश आकर पूरी रात की प्रगाढ़ निद्रा अथवा स्वप्नमाला का एक क्षण में अन्त कर देता है, उसी प्रकार अनुभव का आगमन देह एवं कर्मकृत व्यक्तित्व से अनादि के अपने तादात्म्य को एक ही पल में चीर डालता है । यह देह और इसमें बसने वाला 'मैं'ये दोनों एक ही आकाश प्रदेश के वासी होने के कारण सामान्य रूप से एक ही महसूस होते हैं, किन्तु वास्तव में दोनों हैं बिल्कुल अलगअलग । अनुभव के प्रकाश में यह हकीकत, मात्र बौद्धिक समझ न रहकर जीवन्त सत्य बन जाती है। पहने हुए कपड़े स्वयं से अलग हैं, यह भान प्रत्येक मनुष्य को जितना स्पष्ट है, उतनी स्पष्टता से आत्मानुभवयुक्त देह को स्वयं से अलग अनुभव करता है ।
जिनको अपरोक्ष अनुभव नहीं हुआ, अथवा इसकी झलक भी प्राप्त नहीं हुई, उनको स्वानुभूति की दशा वाणी द्वारा समझाना मुश्किल है। जन्मान्ध को रंगों के भेद वाणी द्वारा कैसे समझाए जा सकते हैं ? जिन्होंने कभी घी अथवा मक्खन चखा तक नहीं, उन्हें घी अथवा मक्खन का स्वाद वाणी द्वारा किस तरह बताया जाए ? अनुभव की अवस्था की जानकारी देने का प्रयास करते हुए अनुभवियों को यही उलझन रहती है। जो स्थिति भाषा से परे हैं, उसे वाणी द्वारा किस प्रकार व्यक्त करना ? अतः अनुभवविषयक कोई भी निरूपण अधूरा लगना स्वाभाविक है। फिर भी इससे अनुभव अवस्था का जरा-सा भी ख्याल जिज्ञासुजन पा रहे हों तो इससे अच्छा और क्या ?
ज्ञानियों ने अनुभव को 'तुरीय', अर्थात् चौथी अवस्था कहा है । नींद एवं जागृति, इन दो अवस्थाओं से हम सब परिचित हैं। जागृत अवस्था में हमारा मन एवं इन्द्रियां बाहरी जगत के साथ के सम्बन्ध में रहकर हमें उसका ज्ञान कराती हैं। नींद में बाह्य जगत का सम्पर्क छूट जाता है। इन्द्रियाँ एवं मन अपना काम बन्द कर आराम करते हैं एवं हम शून्यता में खोये हुए रहते हैं। कितनी ही बार शून्यता में खो जाने के बजाय, हम स्वप्न देखते हैं, यह इस बात का द्योतक है कि मन की प्रवृत्ति सर्वथा रुकी नहीं। स्वप्नावस्था में इन्द्रियाँ बाह्य जगत् को ग्रहण नहीं करतीं, शरीर निश्चेष्ट पड़ा होता है, परन्तु मन गतिशील रहता है । इस प्रकार अपने परिचय की तीन अवस्थाएँ हुई—जागृत, गहरी नींद एवं स्वप्न । अनुभव की चौथी अवस्था इन तीनों से भिन्न है, इसका अपना अनोखा व्यक्तित्व है । गहरी नींद में बाह्य जगत भुला जाता है। उसके साथ ही जागृति भी चली जाती है, जबकि तुरीय के इस अनुभव के समय, बाह्य जगत् का भान न होते हुए भी, सावधानी-जागृति पूर्ण होती है और स्वयं की आनन्दपूर्ण अस्तित्व-सत्ता प्रबलता से अनुभव में आती है ।1 एक सन्त इस अवस्था का परिचय इस प्रकार देते हैं
"जागृति में भी प्रगाढ़ निद्रा, अर्थात् इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि, अहंकार-सभी निद्राधीन हैं एवं देह में परमेश्वर जागता है।"
१. (क) योगशास्त्र, प्रकाश-१२, श्लोक-४७-४६ ।
(ख) उपाध्याय यशोविजय जी कृत अध्यात्मोपनिषद्, ज्ञानयोग, शुद्धि० श्लोक-२४-२५ ।
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