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श्री पुष्करमुनि अभिनन्दन प्रन्य : अष्टम खण्ड
संवत् १९४० में आपका जन्म हुआ। आपका नाम हजारीमल रखा गया । बालक हजारीमल स्वभाव से सरल, गम्भीर, तथा बालसुलभ चंचलता से युक्त था। जब आप तीन वर्ष के हुए तब आप इतने नटखट थे कि माता जब पानी भरने के लिए जाती तब वह आपके पाँव रस्सी से बाँध देती थी। आपकी चंचलता को देखकर मां को कृष्ण को याद आ जाती थी। आप कभी रूठते, कभी मचलते और कभी किसी वस्तु के लिए हठ कर के माता और पिता के मन को आह्लादित करते । जब आप की उम्र सात वर्ष की हुई तब अकस्मात् पिताजी बीमार हुए और सदा के लिए उन्होंने आँखें मूंद लीं । पिता के स्वर्गस्थ होने पर सन्तान के पालन-पोषण की पूरी जिम्मेदारी माता पर आ गयी। किन्तु वह मेवाड़ की वीरांगना थी। वह अपने कर्तव्य को भली-भांति समझती थी। अतः बम्बोरा से वह उदयपुर आकर रहने लगी। क्योंकि बम्बोरे में उस समय अध्ययन की इतनी सुविधा नहीं थी और श्रमण-श्रमणियों के दर्शन भी बहुत ही कम होते थे। उदयपुर में बालक हजारीमल पोशाल में अध्ययन के लिए प्रविष्ट हुआ, क्योंकि उस युग में स्कूल, हाई स्कूल व कालेज नहीं थे। पोशाल में आचार्य के नेतृत्व में अध्ययन कराया जाता था। अध्ययन के साथ जीवन को संस्कारित बनाने के लिए अधिक लक्ष्य दिया जाता था । बालक हजारीमल की बुद्धि बहुत तीक्ष्ण थी, अतः स्वल्प समय में ही उन्हें अक्षरज्ञान हो गया था और वे पुस्तकें भी पढ़ने लगे थे।
विक्रम संवत् १९४६ में आचार्यप्रवर पूज्यश्री पूनमचन्दजी महाराज अपने शिष्यों के साथ उदयपुर पधारे और साथ ही परम विदुषी महासती गुलाबकुंवरजी, छगनकुंवरजी प्रभृति सती वृन्द भी वहाँ पर पधारी। आचार्यप्रवर के पावन प्रवचनों को सुनने के लिए माता ज्ञानकुँवर के साथ बालक हजारीमल प्रतिदिन पहुँचता । आचार्यप्रवर के प्रवचनों में जादू था। वे वाणी के देवता थे। जो एक बार उनके प्रवचन को सुन लेता वह मन्त्रमुग्ध हो जाता। बालक हजारीमल के निर्मल मानस पर प्रवचन अपना रंग जमाने लगे और वह सुबह-शाम मध्याह्न में गुरुदेव के चरणों में बैठता, उनसे धार्मिक अध्ययन करता । गुरुदेव ने सामायिक करने की प्रेरणा दी। उन्होंने मुंह-पत्ती लगाकर सामायिक की। मुंह-पत्ती लगाते ही उनका चेहरा चमकने लगा। उनका गेहुवाँ वर्ण का गठा हुआ गुदगुदा शरीर, बड़ी-बड़ी कटोरे-सी आँखें, गोल मुंह, भव्य भाल, को देखकर हमजोले साथियों ने मजाक किया कि तुम तो गुरुजी की तरह लगते हो। तुम्हारे चेहरे पर मुंह-पत्ती बहुत अच्छी जंचती है। बालक हजारीमल ने आचार्यप्रवर से पूछा--भगवन्, मेरे मुंह पर मुंह-पत्ती बहुत अच्छी लगती है न ? मुंह-पत्ती लगाकर तो मैं साधु-जैसा दीखने लगा हूँ।
आचार्यश्री ने बालक की ओर देखा। उसके शुभ लक्षणों को देखा और वे समझ गये कि यह बालक होनहार है और शासन की शोभा को बढ़ाने वाला है। गुरुदेव ने माता ज्ञानकुंवर को कहा-तुम्हारा यह पुत्र जैन शासन की शान को बढ़ायेगा । बालक का भविष्य उज्ज्वल है। अतीतकाल में भी अतिमुक्तक, ध्रुव, प्रह्लाद, आर्यवन, हेमचन्द्राचार्य, आदि शताधिक बालकों ने बाल्यकाल में दीक्षा ग्रहण कर धर्म की प्रभावना की है।
आचार्यप्रवर के उद्बोधक वचनों को सुनकर ज्ञानकुंवर ने कहा-आचार्यप्रबर, यदि हजारीमल दीक्षा लेगा तो मैं इनकार न करूंगी और यह मैं अपना सौभाग्य समझंगी कि मेरा पुत्र जैन शासन की सेवा के लिए तैयार हुआ है । यदि वह दीक्षा लेगा तो मैं स्वयं भी महासतीजी के पास प्रव्रज्या ग्रहण करूंगी।
बालक हजारीमल के मामा सेठ हंसराजजी भण्डारी थे जो उमड ग्राम के निवासी थे और बुद्धिमान थे। वे आसपास के गांवों में प्रमुख पंच के रूप में भी थे । जब उन्हें पता लगा कि मेरी बहिन और भानजा आहती दीक्षा ग्रहण करने वाले हैं तो वे उदयपुर पहुंचे। आचार्यप्रवर के पास बालक हजारीमल को धार्मिक अध्ययन करते हुए देखकर वे घबरा गये और बहिन को यह समझाकर कि मैं कुछ दिनों के लिए हजारीमल को और तुम्हें लिवाने के लिए आया हूँ। तुम न चलो तो भी कुछ दिनों के लिए बालक को तो भेज ही दो ताकि मैं उसे प्यार कर सकू।
सरलहृदया माता ने बालक हजारीमल को उसके मामा के साथ भेज दिया। हजारीमल को उन्होंने संयम की कठिनता बताकर उसके वैराग्य को कम करने का प्रयास किया। उन्होंने, प्रेम, भय, लालच और आतंक से समझाने की कोशिश की । किन्तु बालक हजारीमल तो गहरे रंग से रंगा हुआ था। 'सूरदास की काली कामरिया चढ़े न दूजो रंग।' उसके मुंह से एक ही बात निकली कि मैं आचार्य प्रवर के पास साधु बनूंगा। बालक के मामा भण्डारी हंसराज जी के जब अन्य प्रयत्न असफल हो गये तो उन्होंने न्यायालय में अर्जी पेश की कि बालक हजारीमल नाबालिग है, माता उसे जबरदस्ती दीक्षा दिलाना चाहती है। अतः रोकने का प्रयास किया जाय । न्यायाधीश ने बालक हजारीमल को अपने पास बुलाया और उससे पूछा कि क्या तुम अपनी माता के कहने से दीक्षा लेना चाहते हो? उन्होंने कहा,
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