________________
के दर्शन में आचार - दर्शन की सम्भावना को सिद्ध करने के प्रयास में उसे जिस स्तर पर लाकर खड़ा किया है, वहीं शंकर सत् की कठोर अद्वैतवादी धारणा से दूर हटकर अभेदाश्रितभेद की धारणा परं आ जाते हैं और शंकर एवं रामानुज में कोई विशेष दूरी नहीं रह जाती है। स्वयं डॉ० रामानन्द भी इस तथ्य को स्वीकार करते हैं कि रामानुज और शंकर में वह दूरी नहीं है जैसी परवर्ती शंकरानुयायियों ने बतायी है। अस्तु।
अद्वैतवाद में आचार दर्शन की सम्भावना तो तब समाप्त हो जाती है जब हर स्तर पर ही अभेद माना जाये। लेकिन अद्वैत के प्रस्तोता आचार्य शंकर भी हर स्तर पर अभेद की धारणा को स्वीकार नहीं करते। वे कहते हैं कि भेद असत् है लेकिन भेद या अनेकता के असत् होने का अर्थ यह नहीं है कि वह प्रतीति का विषय नहीं है यद्यपि यह समस्या है कि असत् अनेकता कैसे प्रतीति का विषय बन जाती है ? लेकिन यहाँ इस चर्चा की गहराई में जाना इष्ट नहीं है। अद्वैतवाद यह मान कर चलता है कि प्रतीति की दृष्टि से न केवल वस्तुगत अनेकता है वरन् व्यक्तिगत अनेकता भी है, और प्रतीति के क्षेत्र में इस भेद तथा अनेकता के कारण बन्धन और मुक्ति एवं नैतिकता और धर्म की सम्भावनाएँ भी हैं। इस प्रकार अद्वैतवादी भी केवल पारमार्थिक स्तर पर ही अभेद को मानते हैं। व्यावहारिक स्तर पर तो उन्हें भी भेद स्वीकार है। व्यावहारिक स्तर पर जब भेद स्वीकार कर लिया जाता है तो आचार- दर्शन की सम्भावना अवगम्य हो जाती है। मेरी अपनी दृष्टि में शंकर जब तक पारमार्थिक स्तर पर अभेद और अद्वयता और व्यावहारिक स्तर पर भेद और अनेकता को स्वीकार करते हैं तब तक वे कोई गलती नहीं करते। स्वयं जैन एवं बौद्ध विचारक भी पारमार्थिक स्तर पर अभेद एवं व्यावहारिक स्तर पर भेद की संकल्पना को स्वीकार करते हैं।
अद्वैतवादी दर्शन की मूलभूत कमजोरी
:
इस आधार पर अद्वैतवाद की आलोचना करना उचित नहीं होगा कि अद्वैतवाद में नैतिक दर्शन की अवगम्यता व्यावहारिक स्तर तक होती है। स्वयं जैन एवं बौद्ध विचारणाओं में भी नैतिकता की अवधारणा व्यावहारिक स्तर पर ही सम्भव है।
पारमार्थिक दृष्टि से अभेद को ही सत्य और व्यवहार के भेद को मिथ्या कहकर भी शंकर कोई गलती नहीं करते हैं। परमार्थ की दृष्टि से व्यवहार मिथ्या है यह ठीक है, लेकिन उससे आगे बढ़कर हमें यह भी मानना पड़ेगा कि व्यवहार की अपेक्षा से अभेद भी मिथ्या होगा, क्योंकि वस्तु तत्त्व स्वापेक्षा से सत्य होता है किन्तु परापेक्षा से मिथ्या "होता है। जिस प्रकार परमार्थ की अपेक्षा से अभेद सत्य है और भेद मिथ्या है उसी प्रकार व्यवहार की अपेक्षा से भेद सत्य और अभेद मिथ्या होंगे। शंकर आधी दूर आकर रुक जाते हैं वे आगे बढ़कर व्यवहार की अपेक्षा से अभेद को मिथ्या कहने का साहस क्यों नहीं करते? जब परमार्थ की अपेक्षा व्यवहार को असत् कहा जाता है तो हमें यह ध्यान में रखना होगा कि यहाँ उसके असत् का प्रतिपादन परमार्थ
Jain Education International
२२५
की अपेक्षा विशेष से ही है, एक अपेक्षा के द्वारा दूसरी अपेक्षाओं का समग्र निषेध तो कभी भी नहीं हो सकता। किसी तीसरी अपेक्षा से दोनों ही यथार्थ हो सकते हैं। यदि हम कहें कि राम दशरथ की अपेक्षा से पुत्र है और पिता नहीं है, तो इसमें उनके पितृत्व का समग्र निषेध नहीं होता है । लव और कुश की अपेक्षा से वे पिता हो सकते हैं। अद्वैतवादी गलती यह करते हैं कि वे परमार्थ की अपेक्षा से व्यवहार का पूर्ण निषेध मान लेते हैं। जिस प्रकार दशरथ की अपेक्षा से राम का पितृत्व मिथ्या है और पुत्रत्व सत्य है और लव कुश की अपेक्षा से राम का पुत्रत्व मिथ्या है और पितृत्व सत्य है लेकिन स्वयं राम की अपेक्षा से न पितृत्व मिथ्या है न पुत्रत्व मिथ्या है वरन् दोनों ही यथार्थ हैं, उसी प्रकार पारमार्थिक दृष्टि से भेद मिथ्या है और अभेद सत्य है, व्यावहारिक दृष्टि से भेद सत्य और अभेद मिथ्या है लेकिन परमतत्त्व की अपेक्षा से तो न अभेद मिथ्या है और न भेद मिथ्या है अपितु दोनों ही सत्य हैं। कठोर अद्वैतवादी विचारक यह भूल जाते हैं कि भेद और अभेद तो परमतत्त्व के सम्बन्ध में दो दृष्टियाँ हैं, वे स्व अपेक्षा से सत्य और पर अपेक्षा से मिथ्या होते हुए भी परम तत्त्व की अपेक्षा से दोनों ही सत्य हो सकती हैं। अद्वैतवादी दर्शन का मानदण्ड लेकर नापने वाले मनीषी डा० राधाकृष्णन् ने अनेकान्तवादी यथार्थवाद को बीच मार्ग में पड़ाव जैसा कहा है। जबकि वास्तविकता यह है कि अद्वैतवादी दर्शन केवल पारमार्थिक या तत्त्व दृष्टि से भेद का निषेध कर स्वयं बीच मार्ग में पड़ाव डाल देता है। वह आगे बढ़कर यह क्यों नहीं कहता है कि व्यावहारिक दृष्टि से अभेद भी मिथ्या है इससे भी आगे बढ़कर वह यह क्यों नहीं स्वीकार करता है कि परम तत्त्व की अपेक्षा से भेद और अभेद दोनों ही सत्य हैं पारमार्थिक और व्यावहारिक दृष्टियाँ सत् के सम्बन्ध में क्रमशः अभेदगामी और भेदगामी दृष्टियाँ हैं, उनमें से कोई भी असत्य नहीं है, दोनों ही अपनी-अपनी अपेक्षा से सत्य हैं। व्यावहारिक भेद भी उतना ही यथार्थ है जितना पारमार्थिक अभेद । दोनों में कोई तुलना नहीं हो सकती है, दो भिन्न-भिन्न स्थितियों से खींचे गये वस्तु के दो चित्रों में कोई भी मिथ्या नहीं कहा जा सकता है। सत् का भेदवादी दृष्टिकोण भी उतना ही यथार्थ है जितना सत् का अभेदवादी दृष्टिकोणा क्योंकि दोनों सत्ता के ही दो पक्ष है। यदि अद्वैतवाद पारमार्थिक और व्यावहारिक ऐसी दो सत्ताएँ खड़ी करता है तो स्वयं अपने सिद्धान्त से पीछे हट जाता है यदि परमार्थ और व्यवहार दोनों को ही वास्तविक मानता है तो उसका अद्वैत खण्डित हो जाता है। और यदि व्यवहार को मिथ्या कहता है तो आनुभविक जगत् की यथार्थता और आचार दर्शन की सम्भावना निरस्त हो जाती है। कुमारिल ने भी शंकर के दर्शन में यही दोष दिखाया है। वस्तुतः परमार्थ और व्यवहार सत् के सम्बन्ध में दो दृष्टियाँ हैं, दोनों सत्ता के दो पहलू हैं और दोनों ही यथार्थ हैं।
हमारा अद्वैतवाद से न तो इसलिए कोई विवाद है कि वह पारमार्थिक दृष्टि से अभेद को मानता है, क्योंकि तत्व या द्रव्य दृष्टि से अभेद को तो सभी ने स्वीकार किया है। और न इसलिए कोई विरोध
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org.