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________________ ४ / विशिष्ट निबन्ध :७ खण्डन किया है। श्लोकवातिककी व्याख्यामें इस स्थानपर सूचरितमिश्र धर्मकीर्तिका निम्न श्लोक, जिसको शंकराचार्य और सुरेश्वराचार्य ने भी उद्धृत किया है, बारम्बार उद्धृत करते हैं "अविभागोऽपि बुद्ध्यात्मा विपर्यासितदर्शनैः ।। ग्राह्यग्राहकसंवित्तिभेदवानिव लक्ष्यते ।।" -प्रमाणवा० २।३५४ इससे यह मालूम होता है कि कुमारिल धर्मकीर्तिके बाद हुए हैं।" डॉ० पाठक जिन श्लोकोंकी व्याख्यामें सुचरितमिश्र द्वारा ‘अविभागोऽपि' श्लोक उद्धृत किए जानेका जिक्र करते हैं, वे श्लोक ये है "मत्पक्षे यद्यपि स्वच्छो ज्ञानात्मा परमार्थतः । तथाप्यनादौ संसारे पूर्वज्ञानप्रसूतिभिः ।। चित्राभिश्चित्रहेतुत्वाद्वासनाभिरुपप्लवात् । स्वानुरूपेण नीलादिग्राह्यग्राहकदूषितम् ॥ प्रविभक्तमिवोत्पन्नं नान्यमर्थमपेक्षते ।" -मी० श्लो० शून्यवाद श्लो० १५-१७ इन श्लोकोंकी व्याख्यामें न केवल सुचरितमिश्रने ही किन्तु पार्थसारथिमिश्रने भी 'अविभागोऽपि' श्लोकको उद्धृतकर बौद्धमतका पूर्वपक्ष स्थापित किया है। पर इन श्लोकोंकी शब्दावलीका ध्यानसे पर्यवेक्षण करने पर ज्ञात होता है कि ग्रन्थकार इन श्लोकोंको सीधे तौरसे पूर्वपक्षके किसी ग्रन्थसे उठाकर उद्धृत कर रहा है। इनकी शब्दावली 'अविभागोऽपि' श्लोकको शब्दरचनासे करीब-करीब बिल्कुल भिन्न है। यद्यपि आर्थिक दृष्टिसे 'अविभागोऽपि' श्लोककी संगति 'मत्पक्षे' आदि श्लोकोंसे ठीक बैठ सकती है; पर यह विषय स्वयं धर्मकीर्ति द्वारा मूलतः नहीं कहा गया है । धर्मकी तिके पूर्वज आचार्य वसुवन्धु आदिने विंशतिकाविज्ञप्तिमात्रता और त्रिंशतिकाविज्ञप्तिमात्रतासिद्धि आदि ग्रन्थोंमें बड़े विस्तारसे उक्त विषयका स्थापन किया है। दिग्नागके जिस प्रमाणसमुच्चयपर धर्मकीर्तिने प्रमाणवार्तिक वृत्ति रची है उसमें तो इसका विवेचन होगा ही। स्थिरमति आदि विज्ञानवादियोंने वसुबन्धुकी त्रिंशतिकाविज्ञप्तिमात्रतासिद्धिपर भाष्य आदि रचके उक्त मतको पूरी-पूरी तौरसे पल्लवित किया है। धर्मकीर्ति तो उक्त मतके अनुवादक हैं । अतः सुचरिता मिश्र या पार्थसारथिमिश्रके द्वारा उद्धृत श्लोकके बलपर कुमारिलको धर्मकीतिका समालोचक नहीं कहोजा सकता। __अब मैं कुछ ऐसे स्थल उद्धृत करता हूँ जिनसे यह निर्धारित किया जा सकेगा कि धर्मकीर्ति ह कुमारिलका खण्डन करते हैं १-कुमारिलने शावरभाष्यके 'धर्मे चोदनैव प्रमाणम्' इस वाक्यको ध्यानमें रखकर अपने द्वारा किए गए सर्वज्ञत्वनिराकरणका एक ही तात्पर्य बताया है कि "'धर्मज्ञत्वनिषेधस्तु केवलोऽत्रीपयुज्यते । सर्वमन्यद्विजानंस्तु पुरुषः केन वार्यते ।।" अर्थात-सर्वज्ञत्वके निराकरणका तात्पर्य है धर्मज्ञत्वका निषेध । धर्मके सिवाय अन्य सब पदार्थोके जाननेवालेका निषेध यहाँ प्रस्तुत नहीं है । धर्मकीर्ति प्रमाणवार्तिक (१-३१-३५ ) में ठीक इससे विपरीत सुगतकी धर्मज्ञता ही पूरे जोरसे सिद्ध करते हैं, उन्हें सुगतकी सर्वज्ञता अनुपयोगी मालूम होती है । वे लिखते हैं कि "हेयोपादेयतत्त्वस्य साभ्युपायस्य वेदकः । यहः प्रमाणमसाविष्टः न तु सर्वस्य वेदकः ॥ १. यह श्लोक कुमारिलके नामसे तत्त्वसंग्रह ( पृ० ८१७ ) में उद्धृत है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.210011
Book TitleAkalank Granthtraya aur uske Karta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAkalankadev
PublisherZ_Mahendrakumar_Jain_Nyayacharya_Smruti_Granth_012005.pdf
Publication Year
Total Pages73
LanguageHindi
ClassificationArticle & Ascetics
File Size6 MB
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