________________
६० : डॉ. महेन्द्रकुमार जैन न्यायाचार्य स्मृति-ग्रन्थ उनकी मानसी अहिंसाका प्रतिफल है। अन्यथा वे बद्धकी तरह इस चर्चाको अनुपयोगी कह सकते थे । कायिक अहिंसाके लिए जिस तरह व्यक्तिगत सम्यगाचार आवश्यक है, उसी तरह वाचनिक और खासकर मानस अहिंसाके लिए अनेकान्तदृष्टि विशेषरूपसे उपासनीय है। जब तक दो विभिन्न विचारोंका अनेकान्तदृष्टिसे वस्तुस्थितिके आधारपर समीकरण न होगा तब तक हृदयमें उनका अन्तर्द्वन्द्व चलता ही रहेगा, और उन विचारोंके प्रयोजकोंके प्रति राग-द्वेषका भाव जाग्रत हुए बिना न रहेगा। इस मानस अहिंसाके बिना केवल बाह्य अहिंसा याचितकमंडनरूप ही है। यह तो और भी कठिन है कि-'किसी वस्तुके विषयमें दो मनुष्य दो विरुद्ध धारणाएं रखते हों, और उनका अपने-अपने ढंगसे समर्थन ही नहीं उसकी सिद्धि के लिए वादविवाद भी करते हों, फिर भी वे एक-दूसरेके प्रति समताभाव-मानस अहिंसा रख सकें।' भगवान् महावीरने इसी मानसशद्धिके लिए, अनिर्वचनीय अखण्ड अनन्तधर्मा वस्तुके एक-एक अंशको ग्रहण करके भी पूर्णताका अभिमान करने के कारण विरुद्धरूपसे भासमान अनेक दृष्टियोंका समन्वय करनेवाली, विचारोंका वास्तविक समझौता करानेवाली, पुण्यरूपा अनेकान्तदृष्टिको सामने रखा। जिससे एक वादी इतरवादियोंकी दृष्टिका तत्त्व समझकर उसका उचित अंश तक आदर करे, उसके विचारोंके प्रति सहिष्णुताका परिचय दे, और राग-द्वेषविहीन हो शान्त चित्तसे वस्तुके पूर्ण स्वरूप तक पहुँचनेकी दिशा में प्रयत्न करे। समाजरचना या संघनिर्माणमें तो इस तत्त्वकी खास आवश्यकता थी। संघमें तो विभिन्न सम्प्रदाय एवं विचारोंके चित्रविचित्र व्यक्ति दीक्षित होते थे । उनका समीकरण इस यथार्थदृष्टि के बिना कर सकना अत्यन्त कठिन था, और समन्वय किए बिना उनके चित्तकी स्थिरता संभव ही नहीं थी। ऊपरी एकीकरणसे तो कभी भी विस्फोट हो सकता था और इस तरह अनेकों संघ छिन्न-भिन्न हुए भी।
अनेकान्तदृष्टिके मूलमें यह तत्त्व है कि-वस्तु स्वरूपतः अनिर्वचनीय है, अनन्तधर्मोका एक अखण्ड पिण्ड है । वचन उसके पूर्ण स्वरूपकी ओर इशारा तो कर सकते हैं, पर उसे पूर्ण रूपसे कह नहीं सकते। लिहाजा एक ही वस्तुको विभिन्न व्यक्ति अपने-अपने दृष्टिकोणोंसे देखते हैं तथा उनका निरूपण करते हैं । इसलिए यदि विरोध भासित हो सकता है तो एक-एक अंशको ग्रहण करके भी अपने में पूर्णताका अभिमान करनेवाली दृष्टियोंमें ही । जब हम एक अंशको जाननेवाली अपनी दृष्टिमें र्णताका अभिमान कर बैठेंगे तो सहज ही द्वितीय अंशको जानकर भी पूर्णताभिमानिनी दुसरी दृष्टि उससे टकराएगी। यदि अनेकान्तदृष्टिसे हमें यह मालम हो जाय कि-ये सब दृष्टियाँ वस्तुके एक-एक धर्मोंको ग्रहण करनेवाली है, इनमें पूर्णताका अभिमान मिथ्या है तब स्वरसतः द्वितीय दृष्टिको, जो अभी तक विरुद्ध भासित होती थी, उचित स्थान
ल जायगा। इसीको आचार्योंने शास्त्रीय शब्दोंमें कहा है कि-'एकान्त वस्तुगत धर्म नहीं है, किन्तु बुद्धिगत है । अतः बुद्धिके शुद्ध होते ही एकान्तका नामोनिशान भी नहीं रहेगा।' इसी समन्वयात्मक दृष्टिसे होनेवाला वचनव्यवहार स्याद्वाद कहलाता है। यह अनेकान्त-ग्राहिणी दृष्टि प्रमाण कही जाती है। 'जो दृष्टि वस्तुके एक धर्मको ग्रहण करके भी इतरधर्मग्राहिणी दृष्टियोंका प्रतिक्षेप नहीं करके उन्हें उचित स्थान दे वह नय कहलाती है। इस तरह मानस अहिंसाके कार्य-कारणभूत अनेकान्तदृष्टिके निर्वाह एवं विस्तारके लिए स्याद्वाद, नयवाद, सप्तभंगी आदि विविध रूपोंमें उत्तरकालीन आचार्योंने खूब लिखा । उन्होंने उदारतापूर्वक यहाँ तक लिखा है कि-'समस्त मिथ्यकान्तोंका समह ही अनेकान्त है, समस्त पाखण्डोंके समदाय अनेकान्तकी जय हो।' यद्यपि पातञ्जलदर्शन, भास्करीयवेदान्त, भाट्ट आदि दर्शनोंमें भी इस समन्वयदृष्टिका उपयोग हुआ है; पर स्याद्वादके ऊपर ही संख्याबद्ध शास्त्रोंकी रचना जैनाचार्योंने ही की है। उत्तरकालीन जैनाचार्योंने यद्यपि भगवान् महावीरकी उसी पुनीत अनेकान्त दृष्टिके अनुसार ही शास्त्ररचना की है। पर वह मध्यस्थभाव अंशतः परपक्षखंडनमें बदल गया। यद्यपि यह आवश्यक था कि-प्रत्येक एकान्तमें
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org