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________________ ४८ : डॉ. महेन्द्रकुमार जैन न्यायाचार्य स्मृति-ग्रन्थ १. समनन्तरप्रत्यय, २. अधिपतिप्रत्यय, ३ आलम्बनप्रत्यय, ४. सहकारिप्रत्यय । ज्ञानकी उत्पत्तिमें पूवज्ञान समनन्तरकारण होता है, चक्षुरादि इन्द्रियाँ अधिपतिप्रत्यय होती हैं, पदार्थ आलम्बनप्रत्यय तथा आलोक आदि अन्य कारण सहकारिप्रत्यय होते हैं। इस तरह बौद्धकी दृष्टिसे ज्ञानके प्रति अर्थ तथा आलोक दोनों ही कारण हैं। उन्होंने स्पष्ट लिखा है कि-'नाकारणं विषयः' अर्थात् जो ज्ञानका कारण नहीं होगा वह ज्ञानका विषय भी नहीं होगा। नैयायिकादि इन्द्रियार्थसन्निकर्षको ज्ञानमें कारण मानते हैं अतः उनके मतसे सन्निकर्ष-घटकतया अर्थ भी ज्ञानका कारण है ही। अर्थकारणतानिरास-ज्ञान अर्थका कार्य नहीं हो सकता; क्योंकि ज्ञान तो मात्र इतना ही जानता है कि 'यह अमुक अर्थ है । वह यह नहीं जानता कि 'मैं इस अर्थसे उत्पन्न हुआ हूँ। यदि ज्ञान यह जानने लगे कि 'मैं इस अर्थसे पैदा हुआ हूँ'; तब तो विवादको स्थान ही नहीं रहता। जब उत्पन्न ज्ञान अर्थके परिच्छेदमें व्यापार करता है तब वह अपने अन्य इन्द्रियादि उत्पादक कारणोंकी सचना स्वयं ही करता है; क्योंकि यदि ज्ञान उसो अर्थसे उत्पन्न हो जिसे वह जानता है, तब तो वह उस अर्थको जान ही नहीं सकेगा; क्योंकि अर्थकाल में तो ज्ञान अनुत्पन्न है तथा ज्ञानकालमें अर्थ विनष्ट हो चुका है। यदि ज्ञान अपने कारणोंको जाने; तो उसे इन्द्रियादिकको भी जानना चाहिए। ज्ञानका अर्थ के साथ अन्वय और व्यतिरेक न होनेसे भी उनमें कारण कार्यभाव नहीं हो सकता। संशयज्ञान अर्थके अभावमें भी हो जाता है। संशयज्ञानस्थलमें स्थाणु-पुरुषरूप दो अर्थ तो विद्यमान नहीं है। अर्थ या तो स्थाणुरूप होगा या पुरुषरूप । व्यभिचार-अन्यथा प्रतिभास बुद्धिगत धर्म है। जब मिथ्याज्ञानमें इन्द्रियगत-तिमिरादि, विषयगत-आशुभ्रमणादि, बाह्य-नौकामें यात्रा करना आदि तथा आत्मगत-वातपित्तादिजन्य क्षोभ आदि दोष कारण होते हैं; तब तो अर्थको हेतुता अपने ही आप व्यर्थ हो जाती है । मिथ्याज्ञान यदि इन्द्रियोंकी दुष्टतासे होता है; तो सत्यज्ञानमें भी इन्द्रियगत निर्दोषता ही कारण होगी । अतः इन्द्रिय और मनको ही ज्ञानमें कारण मानना चाहिए । अर्थ तो ज्ञानका विषय ही हो सकता है, कारण नहीं। अन्य कारणोंसे उत्पन्न बुद्धिके द्वारा सन्निकर्षका निश्चय होता है, सन्निकर्षसे बुद्धिका निश्चय तो नहीं देखा जाता। सन्निकर्षप्रविष्ट अर्थके साथ ज्ञानका कार्यकारणभाव तब निश्चित हो सकेगा; जब सन्निकर्षप्रविष्ट आत्मा, मन, इन्द्रिय आदि किसी एक ज्ञानके विषय हों। पर आत्मा, मन और इन्द्रियाँ तो अतीन्द्रिय हैं, अतः पदार्थके साथ होनेवाला इनका सन्निकर्ष भी अतोन्द्रिय होगा और जब वह विद्यमान रहते हुए भी अप्रत्यक्ष है, तब उसे ज्ञानकी उत्पत्तिमें कारण कैसे माना जाय? ज्ञान अर्थको तो जानता है, पर अर्थमें रहनेवाली स्व-कारणताको नहीं जानता। ज्ञान जब अतीत और अनागत पदार्थों को जो ज्ञानकालमें अविद्यमान है, जानता है; तब तो अर्थकी ज्ञानके प्रति कारणता अपने आप निःसार सिद्ध हो जाती है । देखोकामलादि रोगवालेको शुक्लशंखमें अविद्यमान पोलेपनका ज्ञान होता है। मरणोन्मुख व्यक्तिको अर्थके रहनेपर भी ज्ञान नहीं होता या विपरीतज्ञान होता है। क्षणिक अर्थ तो ज्ञानके प्रति कारण हो ही नहीं सकता; क्योंकि जब वह क्षणिक होनेसे कार्यकाल तक नहीं पहुँचता तब उसे कारण कैसे कहा जाय? अर्थके होनेपर उसके कालमें ज्ञान उत्पन्न नहीं हुआ तथा अर्थके अभावमें ही ज्ञान उत्पन्न हुआ तब ज्ञान अर्थका कार्य कैसे माना जाय? कार्य और कारण एक साथ तो रह ही नहीं सकते। यह कहना भी ठीक नहीं है कि-"यद्यपि अर्थ नष्ट हो चुका है पर वह अपना आकार ज्ञानमें समर्पित कर चुकनेके कारण ग्राह्य होता है। पदार्थमें यहो ग्राह्यता है कि वह ज्ञानको उत्पन्न कर उसमें अपना आकार अर्पण करे।" क्योंकि ज्ञान अमूर्त है वह मूर्त अर्थके प्रतिबिम्बको धारण नहीं कर सकता। मूर्त दर्पणादिमें ही मुखादिका प्रतिबिम्ब आता है, अमूर्तमें मूर्तका नहीं। यदि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.210011
Book TitleAkalank Granthtraya aur uske Karta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAkalankadev
PublisherZ_Mahendrakumar_Jain_Nyayacharya_Smruti_Granth_012005.pdf
Publication Year
Total Pages73
LanguageHindi
ClassificationArticle & Ascetics
File Size6 MB
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