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________________ ४/ विशिष्ट निबन्ध : ४५ शब्दार्थका स्मरण करके व्यवहार होता है । जिस प्रकार प्रत्यक्षबुद्धि अतीतार्थको जानकर भी प्रमाण है उसी तरह स्मृति भी प्रमाण हो है। प्रत्यक्षबुद्धि में अर्थ कारण है, अतः वह एक क्षण पहिले रहता है ज्ञानकालमें नहीं। ज्ञानकालमें तो वह क्षणिक होनेसे नष्ट हो जाता है । जब अविसंवादप्रयुक्त प्रमाणता स्मृतिमें है ही, तब शब्द सुनकर स्मृतिके द्वारा अर्थबोध करके तथा अर्थ देखकर स्मृतिके द्वारा तद्वाचक शब्दका स्मरण करके व्यवहार अच्छी तरह चलता ही है। यह अवश्य है कि-सामान्य विशेषात्मक अर्थको विषय करनेपर भी अक्षज्ञान स्पष्ट तथा शब्दज्ञान अस्पष्ट होता है। जैसे एक ही वृक्षको विषय करनेवाला दूरवर्तो पुरुषका ज्ञान अस्पष्ट तथा समीपवर्तीका स्पष्ट होता है । स्पष्टता और अस्पष्टता विषयभेद प्रयुक्त नहीं है, किन्तु आवरणक्षयोपशमादिसामग्रीप्रयुक्त हैं। जिस प्रकार अविनाभावसम्बन्धसे अर्थका बोध करानेवाला अनुमान अस्पष्ट होकर भी अविसंवादी होनेसे प्रमाण है उसी तरह वाच्यवाचकसम्बन्धसे अर्थका ज्ञान करानेवाला शब्दबोध भी ही प्रमाण होना चाहिए । यदि शब्द बाह्यार्थमें प्रमाण न हो; तब बौद्ध स्वयं शब्दोंसे अदृष्ट नदो, देश, पर्वतादिका अविसंवादि ज्ञान कैसे करते हैं ? यदि कोई एकाध शब्द अर्थकी गैरमौजूदगोमें प्रयुक्त होनेसे व्यभिचारी देखा गया तो मात्र इतनेसे सभी शब्दोंको व्यभिचारी या अप्रमाण नहीं कहा जा सकता। जैसे प्रत्यक्ष या अनुमान कहीं-कहीं भ्रान्त देखे जानेपर भी अभ्रान्त या अव्यभिचारि विशेषणोंसे युक्त होकर प्रमाण हैं उसी तरह आभ्रान्त शब्दको बाह्यार्थ में प्रमाण मानना चाहिए । यदि हेतुवादरूप शब्दके द्वारा अर्थका निश्चय न हो; तो साधन और साधनाभासको व्यवस्था कैसे होगी? इसी तरह आप्तके वचनके द्वारा अर्थबोध न हो तो आप्त और अनाप्तकी व्यवस्था कैसे की जायगी? यदि पुरुषोंके अभिप्रायोंमें विचित्रता होनेके कारण शब्द अर्थव्यभिचारी करार दिए जायँ; तो सुगतकी सर्वज्ञता या सर्वशास्तृतामें कैसे विश्वास किया जा सकेगा? वहाँ भी अभिप्रायवैचित्र्यको शंका उठ सकती है। यदि अर्थव्यभिचार देखा जानेके कारण शब्द अर्थमें प्रमाण नहीं है; तो विवक्षाका भी तो व्यभिचार देखा जाता है, अन्य शब्दकी विवक्षामें अन्य शब्दका प्रयोग उपलब्ध होता है । इस तरह तो शिशपात्व हेतु वृक्षाविसंवादी होनेपर कहीं-कहीं शिंशपाको लताकी संभावनासे, अग्नि इंधनसे पैदा होती है पर कहीं मणि आदिसे उत्पन्न होनेके कारण सभी स्वभावहेतु तथा कार्यहेतु व्यभिचारी हो जायँगे । अतः जैसे यहाँ सुविवेचित व्याप्य और कार्य, व्यापक और कारणका उल्लंघन नहीं कर सकते उसी तरह सुविवेचित शब्द अर्थका व्यभिचारो नहीं हो सकता। अतः अविसंवादि श्रतको अर्थ में प्रमाण मानना चाहिये । शब्दका विवक्षाके साथ कोई अविनाभाव नहीं है; क्योंकि शब्द, वर्ण या पद कहीं अवांछित अर्थको भी कहते हैं तथा कहीं वांछितको भी नहीं कहते। यदि शब्द विवक्षामात्रके वाचक हों तो शब्दोंमें सत्यत्व और मिथ्यात्वकी व्यवस्था न हो सकेगी; क्योंकि दोनों हो प्रकारके शब्द अपनो-अपनी विवक्षा का अनुमान कराते है । शब्दमें सत्यत्वव्यवस्था अर्थप्राप्तिके कारण होती है। विवक्षा रहते हुए भी मन्दबुद्धि शास्त्रव्याख्यानरूप शब्दका प्रयोग नहीं कर पाते तथा सुषुप्तादि अवस्थामें इच्छाके न रहनेपर भी शब्दप्रयोग देखा जाता है। अतः शब्दोंमें सत्यासत्यत्वव्यवस्थाके लिए उन्हें अर्थका वाचक मानना ही होगा। । श्रुतके भेद--श्रुतके तीन भेद है--१ प्रत्यक्षनिमित्तक, २ अनुमाननिमित्तक, ३ आगमनिमित्तक । प्रत्यक्षनिमित्तक-परोपदेशकी सहायता लेकर प्रत्यक्षसे होनेवाला। अनुमान निमित्तक-परोपदेशके बिना केवल अनुमानसे होनेवाला । आगमनिमित्तक-मात्र परोपदेशसे होनेवाला। जैनतर्कवातिककारने परोपदेशज तथा लिंगनिमित्तक रूपसे द्विविध श्रुत स्वीकार करके अकलंकके इस मतकी समालोचना की है। शब्दका स्वरूप-शब्द पुद्गलकी पर्याय है। वह स्कन्ध रूप है, जैसे छाया और आतप । शब्द मीमांसकोंकी तरह नित्य नहीं हो सकता। शब्द यदि नित्य और व्यापक हो तो व्यञ्जक वायुओंसे एक जगह Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.210011
Book TitleAkalank Granthtraya aur uske Karta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAkalankadev
PublisherZ_Mahendrakumar_Jain_Nyayacharya_Smruti_Granth_012005.pdf
Publication Year
Total Pages73
LanguageHindi
ClassificationArticle & Ascetics
File Size6 MB
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