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४: डॉ. महेन्द्रकुमार जैन न्यायाचार्य स्मृति-ग्रन्थ
साधकप्रमाण नहीं मिला । भाण्डारकर प्राच्यविद्यासंशोधन मन्दिरके जैनागम कैटलॉगमें प्रो० H. R. कापडिया ने स्पष्ट लिखा है कि-नन्दीचूणिके कर्ता जिनदास है यह प्रघोषमात्र है।
२-निशीथचूणिकी तरह नन्दीचूणिके अन्तमें जिनदासने अपना नाम नहीं दिया। ३-नन्दीणिके अन्तमें पाई जानेवाली
"णिरेण गामेत्त महासहा जिता, पसूयती संख जगद्धिताकुला ।
कमद्धिता वीसंत चितितक्खरो फुडं कहेयं अभिहाणकम्मुणा ।" इस गाथाके अक्षरोंको लौट पलटनेपर भी 'जिनदास' नाम नहीं निकलता।
४-नन्द्यध्ययन टीकाके रचयिता आचार्य मलयगिरिको भी चणिकारका नाम नहीं मालम था; क्योंकि वे अपनी टोका' में पूर्वटीकाकार आचार्योंका स्मरण करते समय हरिभद्रसूरिका तो नाम लेकर स्मरण करते हैं जब कि हरिभद्रके द्वारा आधार रूपसे अवलम्बित चूणिके रचयिताका वे नामोल्लेख नहीं करके 'तस्मै श्रीणिकृते नमोऽस्तु' इतना लिखकर ही चुप हो जाते हैं। इसलिए यह स्पष्ट है कि-आचार्य मलयगिरि चूर्णिकारके नामसे अपरिचित थे; अन्यथा वे हरिभद्रकी तरह चणिकारका नाम लिये बिना नहीं रहते ।
अतः जब नन्दीचूणिकी और निशोथर्णिको एककर्तृकता ही अनिश्चित है तब नन्दीचूर्णिके समयसे निशीथचूणिके समयका निश्चय नहीं किया जा सकता । इस तरह अनिश्चितसमयवाला निशीथचूणिका सिद्धिविनिश्चयवाला उल्लेख अकलंकका समय ई० ६७६ से पहिले ले जाने में साधक नहीं हो सकता।
(२) अकलंकचरितके 'विक्रमार्क शकाब्द' वाले उल्लेखको हमें अन्य समर्थ प्रमाणोंके प्रकाशमें ही देखना तथा संगत करना होगा; क्योंकि अकलंकचरित १५वों १६वीं शताब्दीका ग्रन्थ है । यह अकलंकसे करीब सात आठ सौ वर्ष बाद बनाया गया है। अकलंकचरितके कर्ताके सामने यह परम्परा रही होगी कि 'संवत् ७०० में अकलंकका शास्त्रार्थ हुआ था'; पर उन्हें यह निश्चित मालूम नहीं था कि-यह संवत् विक्रम है या शक अथवा और कोई ? आगे लिखे हुए 'अकलंकके ग्रन्थोंकी तुलना' शीर्षक स्तम्भसे यह स्पष्ट हो जायगा कि अकलंकने भर्तृहरि, कुमारिल, धर्मकीर्ति, प्रज्ञाकर, कर्णकगोमि आदि आचार्योंके विचारोंकी आलोचना की है । कुमारिल आदिका कार्यकाल सन् ६५० ई० से पहले किसी भी तरह नहीं जाता; क्योंकि भर्तृहरि ( सन् ६०० से ६५० ) की आलोचना कुमारिल आदिके ग्रन्थोंमें पाई जाती है। यदि विक्रमार्क शकाब्दसे विक्रमसंवत् विवक्षित किया जाय तो अकलंकको कुमारिल आदिसे पूर्वकालीन नहीं तो ज्येष्ठ तो अवश्य हो मानना पड़ेगा। यह अकलंकके द्वारा जिन अन्य आचार्योंकी समालोचना की गई है, उनके समयसे स्पष्ट ही विरुद्ध पड़ता है। अतः हम इस श्लोकको इतना महत्त्व नहीं दे सकते, जिससे हमें सारी वस्तुस्थितिको उलटकर भर्तहरि, कुमारिल, धर्मकीर्ति, प्रज्ञाकर और कर्णकगोमिको, जिनमें स्पष्टरूपसे पौर्वापर्य है खींचतानकर समान कालमें लाना पड़े । अकलंकदेवके ग्रन्थोंसे मालम होता है कि उनका बौद्धदर्शनविषयक अभ्यास धर्मकीति तथा उनके शिष्योंके मल एवं टीकाग्रन्थोंका था । इसका यह तात्पर्य नहीं है कि उन्होंने वसुबन्धु या दिग्नागके ग्रन्थ नहीं देखे थे । किन्तु बौद्धोंके साथ महान् शास्त्रार्थ करनेवाले अकलंकको उन पूर्वग्रन्थोंका देखना भर १. भाण्डारकर प्राच्यविद्या संशोधन मन्दिरके जैनागम कैटलॉग ( Part II. P. 302 ) में मलयगिरिरचित
लिखित तीन नन्दिसूत्रविवरणोंका परिचय है। उनमे चूर्णिकार तथा हरिभद्रका निम्न श्लोकोंमें स्मरण किया है"नन्द्यध्ययनं पूर्व प्रकाशितं येन विषमभावार्थम् । तस्मै श्रोणिकृते नमोस्तु विदुषे परोपकृते ।। १॥ मध्ये समस्तभपीठं यशो यस्याभिवर्द्धत । तस्मै श्रोहरिभद्राय नमष्टीकाविधायिने ।। २ ॥"
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