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________________ ३८ : डॉ. महेन्द्रकुमार जैन न्यायाचार्य स्मृति-ग्रन्थ १. स्वभावहेतु, २. कार्य हेतु, ३. अनुपलब्धिहेतु । स्वभाव और कार्यहेतु विधिसाधक हैं तथा अनुपलब्धिहेतु निषेधसाधक । स्वभावहेतुमें तादात्म्यसम्बन्ध, कार्यहेतुमें तदुत्पत्तिसम्बन्ध तथा अनुपलब्धिहेतुमें यथासंभव दोनों सम्बन्ध अविनाभावके प्रयोजक होते हैं। अकलंकदेव इसका निरास करते हैं कि-जहाँ तादात्म्य और तदुत्पत्ति सम्बन्धसे हेतुमें गमकत्व देखा जाता है वहाँ अविनाभाव तो रहता ही है, भले ही वह अविनाभाव तादात्म्य तथा तदुत्पत्तिप्रयुक्त हो, पर बहुतसे ऐसे भी हेतु हैं जिनका साध्यके साथ तादात्म्य या तदुत्पत्ति सम्बन्ध नहीं है फिर भी अविनाभावके कारण वे नियत साध्यका ज्ञान कराते हैं । जैसे कृतिकोदयसे भविष्यत् शकटोदयका अनुमान । यहाँ कृतिकोदयका शकटोदयके साथ न तादात्म्य सम्बन्ध है और न तदुत्पत्ति ही। हेतुओंके तीन भेद मानना भी ठीक नहीं है; क्योंकि स्वभाव, कार्य और अनुपलब्धिके सिवाय कारण, पूर्वचर, उत्तरचर और सहचर हेतु भी स्वनियतसाध्यका अनुमान कराते हैं। कारणहेतु-वृक्षसे छायाका ज्ञान, चन्द्रमासे जलमें पड़नेवाले उसीके प्रतिबिम्बका अबाधित अनुमान होता है। यहाँ वृक्ष या चन्द्र न तो छाया या जलप्रतिबिम्बित चन्द्रके कार्य हैं और न स्वभाव ही। हाँ, निमित्तकारण अवश्य हैं । अतः कारणलिंगसे भी कार्यका अनुमान मानना चाहिये। जिस कारणकी सामर्थ्य अप्रतिबद्ध हो तथा जिसमें अन्य कारणोंकी विकलता न हो वह कारण अवश्य ही कार्योपादक होता है । पूर्ववरहेतु-कृतिका नक्षत्र का उदय देखकर एक मुहूर्तके बाद रोहिणी नक्षत्रके उदयका अनुमान देखा जाता है। अब विचार कीजिये कि-कृतिकाका उदय जिससे रोहिणीके उदयका अविसंवादी अनुमान होता है, किस हेतुमें शामिल किया जाय ? कृतिकोदय तथा रोहिण्युदयमें कालभेद होनेसे तादात्म्य सम्बन्ध नहीं हो सकता, अतः स्वभावहेतुमें अन्तर्भाव नहीं होगा। तथा एक दूसरेके प्रति कार्यकारणभाव नहीं है अतः कार्य या कारणहेतुमें उसका अन्तर्भाव नहीं किया जा सकता। अतः पूर्वचरहेतु अतिरिक्त ही मानना चाहिये। इसी तरह आज सूर्योदय देखकर कल सूर्योदय होगा, चन्द्रग्रहण होगा इत्यादि भविष्यद्विषयोंका अनुमान अमुक अविनाभावी पूर्वचर हेतुओंसे होता है । उत्तरचरहेतु-कृतिकाका उदय देखकर एक मुहूर्त पहिले भरणी नक्षत्रका उदय हो चुका यह अनुमान होता है । यह उत्तरचर हेतु पूर्वोक्त किसी हेतुमें अन्तर्भूत नहीं होता। सहचरहेतु-चन्द्रमाके इस भागको देखकर उसके उस भागका अनुमान, तराजूके एक पलडेको नीचा देखकर दूसरे पलड़ेके ऊँचे होनेका अनुमान, रस चखकर रूपका अनुमान तथा सास्ना देखकर गौका अनुमान देखा जाता है । यहाँ रसादि सहचर हेतु है; क्योंकि इनका अपने साध्योंके साथ तादात्म्य और तदुत्पत्ति आदि कोई सम्बन्ध नहीं होनेसे ये कार्य आदि हेतुओंमें अन्तर्भूत नहीं हैं। हाँ, अविनाभावमात्र होनेसे ये हेतु गमक होते हैं। अनुपलब्धि-बौद्ध दृश्यानुपलब्धिसे ही अभावकी सिद्धि मानते हैं । दृश्यसे उनका तात्पर्य ऐसी वस्तुसे है कि-जो वस्तु सूक्ष्म, अन्तरित या दूरवर्ती न हो तथा जो प्रत्यक्षका विषय हो सकती हो । ऐसी वस्तु उपलब्धिके समस्त कारण मिलनेपर भी यदि उपलब्ध न हो तो उसका अभाव समझना चाहिये। सूक्ष्मादि पदार्थों में हम लोगोंके प्रत्यक्ष आदि की निवृत्ति होनेपर भी उनका अभाव तो नहीं होता। प्रमाणसे प्रमेयका सद्भाव जाना जा सकता है पर प्रमाणकी अप्रवृत्तिसे प्रमेयका अभाव नहीं माना जा सकता। अतः विप्रकृष्ट पदार्थों में अनुपलब्धि संशयहेतु होनेसे अभावकी साधिका नहीं हो सकती। अकलंकदेव इसका निरास करते हुए लिखते हैं कि-दृश्यत्वका अर्थ प्रत्यक्षविषयत्व ही न होना Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.210011
Book TitleAkalank Granthtraya aur uske Karta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAkalankadev
PublisherZ_Mahendrakumar_Jain_Nyayacharya_Smruti_Granth_012005.pdf
Publication Year
Total Pages73
LanguageHindi
ClassificationArticle & Ascetics
File Size6 MB
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