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४/ विशिष्ट निबन्ध : ३३
इसी तरह ईहाकी प्रमाणतामें अवाय फल है तथा अवायको प्रमाण माननेपर धारणा फलरूप होती है । तात्पर्य यह कि--पूर्वपूर्वज्ञान साधकतम होनेसे प्रमाण हैं तथा उत्तरोत्तरज्ञान प्रमितिरूप होनेसे फलरूप है। प्रमाणफलभावका ऐसा ही क्रम वैशेषिकादि अन्य दर्शनोंमें भी पाया जाता है।
मख्य प्रत्यक्ष-इन्द्रिय और मनकी अपेक्षाके बिना होनेवाले, अतीन्द्रिय, व्यवसायात्मक, विशद, सत्य, अव्यवहित, अलौकिक, अशेष पदार्थोंको विषय करनेवाले, अक्रम ज्ञानको मुख्य प्रत्यक्ष कहते हैं। वह सकल और विकलके भेदसे दो प्रकारका है। सकलप्रत्यक्ष केवलज्ञान है। अवधिज्ञान और मनःपर्ययज्ञान अमक पदार्थोको विषय करने के कारण विकलप्रत्यक्ष है।
सर्वज्ञत्व विचार–प्राचीनकालमें भारतवर्षको परम्पराके अनुसार सर्वज्ञताका सम्बन्ध भी मोक्षके ही साथ था । ममक्षओं में विचारणीय विषय तो यह था कि-मोक्ष के मार्गका किसने साक्षात्कार किया है ? इसी मोक्षमार्गको धर्म शब्दसे कहते हैं। अतः 'धर्मका साक्षात्कार हो सकता है या नहीं ?' इस विषयमें विवाद था । एक पक्षका, जिसके अनुगामी शबर, कुमारिल आदि मीमांसक हैं, कहना था कि-धर्म जैसी अतीन्द्रिय वस्तुको हम लोग प्रत्यक्ष से नहीं जान सकते, उसमें तो वेदका ही निधि अधिकार है। धर्मकी परिभाषा भी 'चोदनालक्षणोऽर्थः धर्म:' करके धर्ममें चोदना-वेदको ही प्रमाण कहा है। ऐसी धर्मज्ञतामें वेदको ही अन्तिम प्रमाण माननेके कारण उन्हें पुरुषमें अतीन्द्रियार्थविषयक ज्ञानका अभाव मानना पड़ा। उन्होंने पुरुषोंमें राग-द्वेष-अज्ञान आदि दोषोंकी शंका होनेसे अतीन्द्रियार्थप्रतिपादक वेदको पुरुषकृत न मानकर उसे अपौरुषेय स्वीकार किया। इस अपौरुषेयत्वको मान्यतासे ही पुरुषमें सर्वज्ञताका अर्थात् प्रत्यक्षके द्वारा होनेवाली धर्मज्ञताका निषेध हुआ। कुमारिल इस विषयमें स्पष्ट लिखते हैं कि-सर्वज्ञत्वके निषेधसे हमारा तात्पर्य केवल धर्मज्ञत्वके निषेधसे है। धर्मके सिवाय यदि कोई पुरुष संसारके समस्त अर्थों को जानना चाहता है, खुशोसे जाने, हमें कोई आपत्ति नहीं है। पर धर्मका ज्ञान वेदके द्वारा ही होगा, प्रत्यक्षादि प्रमाणोंसे नहीं । इस तरह धर्मको वेदके द्वारा तथा धर्मातिरिक्त अन्य पदार्थोंको यथासंभव अनुमानादि प्रमाणोंके द्वारा जानकर कोई पुरुष यदि टोटल में सर्वज्ञ बनता है, तब भी हमें कोई आपत्ति नहीं है।
दूसरा पक्ष बौद्धोंका है । ये बुद्धको धर्म-चतुरार्यसत्यका साक्षात्कार मानते हैं। इनका कहना है कि बुद्धने अपने निरास्रव शुद्धज्ञानके द्वारा दुःख, समुदय-दुःखके कारण, निरोध-मोक्ष, मार्ग-मोक्षोपाय इस चतुरार्यसत्यरूप धर्मका प्रत्यक्षसे ही स्पष्ट साक्षात्कार किया है। अतः धर्मके विषयमें बुद्ध ही प्रमाण हैं। वे करुणा करके कषायज्वालासे झुलसे हुए संसारी जीवोंके उद्धारकी भावनासे उपदेश देते हैं। इस मतके समर्थक धर्मकीर्तिने लिखा है कि हम 'संसारके समस्त पदार्थोंका कोई पुरुष साक्षात्कार करता है कि नहीं' इस निरर्थक बातके झगड़े में नहीं पड़ना चाहते । हम तो यह जानना चाहते हैं कि-उसने इष्टतत्त्व-धर्मको जाना है कि नहीं? मोक्षमार्गमें अनुपयोगी संसारके कीड़े-मकोड़ों आदिकी संख्याके परिज्ञानका भला मोक्षमार्गसे क्या सम्बन्ध है? धर्मकीर्ति सर्वज्ञताका सिद्धान्ततः विरोध नहीं करके उसे निरर्थक अवश्य बतलाते हैं । वे सर्वज्ञताके समर्थकोंसे कहते हैं कि-भाई, मीमांसकोंके सामने सर्वज्ञता-त्रिकाल-त्रिलोकवर्ती समस्तपदार्थों का प्रत्यक्षसे ज्ञान-पर जोर क्यों देते हो? असली विवाद तो धर्मज्ञतामें है कि धर्मके विषयमें धर्मके साक्षात्कर्ताको प्रमाण माना जाय या वेदको? उस धर्ममार्गके साक्षात्कारके लिए धर्मकीर्तिने आत्मा-ज्ञानप्रवाहसे दोषोंका अत्यन्तोच्छेद माना और उसके साधन नैरात्म्यभावना आदि बताए हैं। तात्पर्य यह कि-जहाँ कुमारिलने प्रत्यक्षसे धर्मज्ञताका निषेध करके धर्मके विषयमें वेदका ही अव्याहत अधिकार सिद्ध किया है। वहाँ धर्मकीर्तिने प्रत्यक्षसे हो धर्म-मोक्ष मार्गका साक्षात्कार मानकर प्रत्यक्षके द्वारा होनेवाली धर्मज्ञताका जोरोंसे समर्थन किया है।
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