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________________ ४/ विशिष्ट निबन्ध : ३१ अकलंकदेव इसका निराकरण इस तरह करते हैं-अर्थक्रियार्थी पुरुष प्रमाणका अन्वेषण करते हैं। जब व्यवहार में साक्षात् अर्थक्रियासाधकता सविकल्पज्ञानमें ही है, तब क्यों न उसे ही प्रमाण माना जाय ? निर्विकल्पकमें प्रमाणता लानेको आखिर आपको सविकल्पज्ञान तो मानना ही पड़ता है। यदि निर्विकल्पके द्वारा गृहीत नीलाद्यशको विषय करनेसे विकल्पज्ञान अप्रमाण है; तब तो अनुमान भी प्रत्यक्षके द्वारा गृहीत क्षणिकत्वादिको विषय करनेके कारण प्रमाण नहीं हो सकेगा। निर्विकल्पसे जिस प्रकार नीलाद्यंशोंमें 'नीलमिदम्' इत्यादि विकल्प उत्पन्न होते हैं उसी प्रकार क्षणिकत्वादि अंशोंमें भी 'क्षणिकमिदम्' इत्यादि विकल्पज्ञान उत्पन्न होना चाहिए । अतः व्यवहारसाधक सविकल्पज्ञान ही प्रत्यक्ष कहा जाने योग्य है। विकल्पज्ञान ही विशदरूपसे हर एक प्राणीके अनुभवमें आता है, जबकि निर्विकल्पज्ञान अनुभवसिद्ध नहीं है। प्रत्यक्षसे तो स्थिर स्थूल अर्थ ही अनुभवमें आते हैं, अतः क्षणिक परमाणुका प्रतिभास कहना प्रत्यक्षविरुद्ध है । निर्विकल्पकको स्पष्ट होनेसे तथा सविकल्पको अस्पष्ट होनेसे विषयभेद मानना भी ठीक नहीं है; क्योंकि एक ही वृक्ष दूरवर्ती पुरुषको अस्पष्ट तथा समीपवर्तीको स्पष्ट दीखता है। आद्यप्रत्यक्षकालमें भी कल्पनाएँ बराबर उत्पन्न तथा विनष्ट तो होती ही रहती है, भले ही वे अनुपलक्षित रहें। निर्विकल्पसे सविकल्पककी उत्पत्ति मानना भी ठीक नहीं है; क्योंकि यदि अशब्द निर्विकल्पकसे सशब्द विकल्पज्ञान उत्पन्न हो; तो शब्दशून्य अर्थसे ही विकल्पकी उत्पत्ति मानने में क्या बाधा है ? अतः मति, स्मृति, संज्ञा, चिन्तादि यावद्विकल्पज्ञान संवादी होनेसे प्रमाण है । जहाँ ये विसंवादी हों वहीं इन्हें अप्रमाण कह सकते हैं। निर्विकल्पक प्रत्यक्षमें अर्थक्रियास्थितिअर्थात् अर्थक्रियासाधकत्व रूप अविसंवादका लक्षण भी नहीं पाया जाता, अतः उसे प्रमाण कैसे कह सकते है ? शब्दसंसृष्ट ज्ञानको विकल्प मानकर अप्रमाण कहनेसे शास्त्रोपदेशसे क्षणिकत्वादिकी सिद्धि नहीं हो सकेगी। मानसप्रत्यक्ष निरास-बौद्ध इन्द्रियज्ञानके अनन्तर उत्पन्न होनेवाले विशद ज्ञानको, जो कि उसी इन्द्रियज्ञानके द्वारा ग्राह्य अर्थ के अनन्तरभावी द्वितीयक्षणको जानता है, मानस प्रत्यक्ष कहते हैं। अकलंकदेव कहते हैं कि-एक ही निश्चयात्मक अर्थसाक्षात्कारी ज्ञान अनुभवमें आता है। आपके द्वारा बताए गए मानस प्रत्यक्ष का तो प्रतिभास ही नहीं होता। 'नीलमिदम्' यह विकल्पज्ञान भी मानस प्रत्यक्षका असाधक हैक्योंकि ऐसा विकल्पज्ञान तो इन्द्रियप्रत्यक्षसे ही उत्पन्न हो सकता है, इसके लिए मानसप्रत्यक्ष माननेकी कोई आवश्यकता नहीं है । बड़ी और गरम जलेबी खाते समय जितनी इन्द्रियबुद्धियाँ उत्पन्न होती हैं उतने ही तदनन्तरभावी अर्थको विषय करनेवाले मानस प्रत्यक्ष मानना होंगे; क्योंकि बादमें उतने ही प्रकारके विकल्पज्ञान उत्पन्न होते है । इस तरह अनेक मानसप्रत्यक्ष माननेपर सन्तानभेद हो जानेके कारण 'जो मैं खाने वाला हूँ वही मैं सूंघ रहा हूँ यह प्रत्यभिज्ञान नहीं हो सकेगा । यदि समस्त रूपादिको विषय करनेवाला एक ही मानसप्रत्यक्ष माना जाय; तब तो उसीसे रूपादिका परिज्ञान भी हो ही जायगा, फिर इन्द्रियबुद्धियाँ किसलिए स्वीकार की जायँ ? धर्मोत्तरने मानसप्रत्यक्ष को आगमप्रसिद्ध कहा है। अकलंकने उसकी भी समालोचना की है कि जब वह मात्र आगमप्रगिद्ध ही है : तब उसके लक्षणका परीक्षण ही निरर्थक है। स्वसंवेदनप्रत्यक्ष खंडन-यदि स्वसंवेदन प्रत्यक्ष निर्विकल्पक है तब तो स्वाप तथा मादि अवस्थाओंमें ऐसे निर्विकल्पक प्रत्यक्षको मानने में बया बाधा है ? सुषुप्ताद्यवस्थाओंमें अनुभवसिद्ध ज्ञानका निषेध तो किया ही नहीं जा सकता । यदि उक्त अवस्थाओंमें ज्ञानका अभाव हो तो उस समय योगियोंको चतुःसत्यविषयक भावनाओंका भी विच्छेद मानना पडेगा। बौद्धसम्मत विकल्पके लक्षणका निरास-बौद्ध 'अभिलापवती प्रतीतिः कल्पना' अर्थात जो ज्ञान शब्दसंसर्गके योग्य हो उस ज्ञानको कल्पना या विकल्पज्ञान कहते हैं। अकलंकदेवने उनके इस लक्षणका खंडन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.210011
Book TitleAkalank Granthtraya aur uske Karta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAkalankadev
PublisherZ_Mahendrakumar_Jain_Nyayacharya_Smruti_Granth_012005.pdf
Publication Year
Total Pages73
LanguageHindi
ClassificationArticle & Ascetics
File Size6 MB
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