SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 28
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २८ : डॉ० महेन्द्रकुमार जैन न्यायाचार्य स्मृति-ग्रन्थ प्रसाद-विषादादि चेष्टाओंसे अनुमान तो कर सकते हैं पर उनसे अनुग्रहादि तो हमें नहीं होता । ज्ञानको परोक्ष माननेपर आत्मान्तरकी बुद्धिका अनुमान करना भी कठिन हो जायगा। परकीय आत्मामें बुद्धिका अनुमान व्यापार वचनादि चेष्टाओंसे किया जाता है। यदि हमारा ज्ञान हमें ही अप्रत्यक्ष है, तब हम ज्ञानका व्यापारादिके साथ कार्यकारणरूप अविनाभाव अपनी आत्मामें तो ग्रहण ही नहीं कर सकेंगे, अन्य आत्मामें तो अभी तक ज्ञानका सद्भाव ही असिद्ध है। अतः अविनाभावका ग्रहण न होनेसे परकीय आत्मामें बुद्धिका अनुमान नहीं हो सकेगा। नैयायिकके ज्ञानान्तरवेद्यज्ञानवादका निराकरण-यदि प्रथमज्ञानका प्रत्यक्ष द्वितीयज्ञानसे माना जाय और इसी तरह अस्वसंवेदी तृतीयादिज्ञानसे द्वितीयादिज्ञानोंका प्रत्यक्ष; तब अनवस्था नामका दूषण ज्ञानके सद्भाव सिद्ध करनेमें बाधक होगा, क्योंकि जब तक आगे-आगेके ज्ञान अपने स्वरूपका निश्चय नहीं करेंगे तब तक वे पूर्वपूर्वज्ञानोंको नहीं जान सकेंगे। और जब प्रथमज्ञान ही अज्ञात रहेगा तब उसके द्वारा अर्थका ज्ञान असंभव हो जायगा। इस तरह जगत् अर्थनिश्चयशून्य हो जायगा । एक ज्ञानके जाननेमें हो जब इस तरह अनेकानेक ज्ञानोंका प्रवाह चलेगा, तब तो ज्ञानको विषयान्तरमें प्रवृत्ति ही नहीं हो सकेगी । यदि अप्रत्यक्षज्ञानसे अर्थबोध माना जाय; तब तो हम लोग ईश्वरज्ञानके द्वारा भी समस्त पदार्थोंको जानकर सर्वज्ञ बन जायेंगे, क्योंकि अभी तक हम लोग सर्वज्ञके ज्ञानके द्वारा अर्थोंको इसी कारणसे नहीं जान सकते थे कि वह हमारे स्वयं अप्रत्यक्ष है। सांख्यके प्रकृतिपर्यायात्मकज्ञानवाद निरसन-यदि ज्ञान प्रकृतिका विकार होनेसे अचेतन है तथा वह पुरुषके संचेतन द्वारा अनुभूत होता है; तो फिर इस अकिञ्चित्कर ज्ञानका क्या प्रयोजन ? क्योंकि उसी ज्ञानस्वरूपसंचेतक पुरुषानुभवके द्वारा अर्थका भी परिज्ञान हो जायगा। यदि वह सञ्चेतन स्वप्रत्यक्ष नहीं है; तब इस अकिञ्चित्कर ज्ञानकी सत्ता किससे सिद्ध की जायगी ? ज्ञान विषयक सञ्चेतना जो कि अनित्य है, अविकारी कूटस्थनित्य पुरुषका धर्म भी कैसे हो सकती है ? अतः ज्ञान परिणामी पुरुषका ही धर्म है और वह स्वार्थसंवेदक होता है । इसी तरह यदि अर्थसञ्चेतना स्वार्थसंवेदक है: तब तद्वयतिरिक्त अकिञ्चित्कर पुरुषके मानने का भी क्या प्रयोजन ? यदि वह अस्वसंवेदक है; तब पूर्वज्ञान तथा पुरुषकी सिद्धि किससे होगी? बौद्धोंके साकारज्ञानवादका निरास-साकारज्ञानवादी निराकारज्ञानवादियोंको ये दूषण देते हैं कि-'यदि ज्ञान निराकार है, उसका किसी अर्थ के साथ कोई खास सम्बन्ध नहीं है; तब प्रतिकर्मव्यवस्थाघटज्ञानका विषय घट ही है पट नहीं-कैसे होगी? तथा विषयप्रतिनियम न होनेसे सब अर्थ एक ज्ञानके या सब ज्ञानोंके विषय हो जायँगे। विषयज्ञान और विषयज्ञानज्ञानमें कोई भेद नहीं रहेगा। इनमें यही भेद है कि विषयज्ञानजहाँ केवल विषयके आकार होता है तब विषयज्ञानज्ञान अर्थ और अर्थाकारज्ञान दोनोंके आकारको धारण करता है। विषयकी सत्ता सिद्ध करनेके लिए ज्ञानको साकार मानना आवश्यक है।' अकलंकदेवने इनका समाधान करके ज्ञानको निराकार सिद्ध करते हए लिखा है कि-विषयप्रतिनियमके लिए ज्ञानकी अपनी शक्ति ही नियामक है। जिस ज्ञानमें जिस प्रकारकी जितनी शक्ति होगी उससे उतनी और उसी प्रकारकी अर्थव्यवस्था होगी। इस स्वशक्तिको न मानकर ज्ञानको साकार माननेपर भी यह प्रश्न किया जा सकता है कि 'घटज्ञान घटके ही आकार क्यों हुआ पटके आकार क्यों नहीं हुआ?' तदुत्पत्तिसे तो आकारनियम नहीं किया जा सकता; क्योंकि जिस तरह घटज्ञान घटसे उत्पन्न हुआ है उसी तरह इन्द्रिय, आलोक आदि पदार्थोसे भी तो Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.210011
Book TitleAkalank Granthtraya aur uske Karta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAkalankadev
PublisherZ_Mahendrakumar_Jain_Nyayacharya_Smruti_Granth_012005.pdf
Publication Year
Total Pages73
LanguageHindi
ClassificationArticle & Ascetics
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy