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________________ विवेक-चूडामणि नैव क्रियाफलमपीपदवेधते स खानन्दसान्द्ररसपानसुमत्तचित्तः॥५५३॥ ब्रह्मवेत्ता पुरुष अत्यन्त सघन आत्मानन्दरसके पानसे मतवाला होकर साक्षीरूपसे स्थित हुआ इन्द्रियोंको न तो विषयोंमें लगाता है और न उन्हें विषयोंसे हटाता है। वह अपने कर्मोंके फलकी ओर तो देखता भी नहीं है। लक्ष्यालक्ष्यगतिं त्यक्त्वा यस्तिष्ठेत्केवलात्मना । शिव एव स्वयं साक्षादयं ब्रह्मविदुत्तमः ॥५५४॥ जो लक्ष्य और अलक्ष्य दोनों दृष्टियोंको त्यागकर केवल एक आत्मखरूपसे स्थित रहता है वह ब्रह्मवेत्ताओंमें श्रेष्ठ महापुरुष साक्षात् शिव ही है। [ अर्थात् अन्य वस्तुके अभावके कारण जिसका कोई लक्ष्य ( प्राप्तव्य ) नहीं होता और जड अथवा सोये हुए पुरुषके समान जो ज्ञानशून्य भी नहीं होता वह पुरुष ही श्रेष्ठतम आत्मनिष्ठ है । जीवन्नेव सदा मुक्तः कृतार्थों ब्रह्मवित्तमः। उपाधिनाशाहौव सन् ब्रह्माप्येति नियम् ॥५५५॥ ऐसा ब्रह्मज्ञानी जीता हुआ भी सदा मुक्त और कृतार्थ ही है, शरीररूप उपाधिके नष्ट होनेपर वह ब्रह्मभावमें स्थित हुआ ही अद्वितीय ब्रह्ममें लीन हो जाता है। शैलूषो वेषसद्भावाभावयोश्च यथा पुमान् । तथैव ब्रह्मविच्छ्रेष्ठः सदा ब्रह्मैव नापरः ॥५५६॥ नट जैसे विचित्र वेष-विन्यास धारण किये रहनेपर अथवा उसके अभावमें भी पुरुष ही है, वैसे ही ब्रह्मवेत्ता उपाधियुक्त http://www.Apnihindi.com
SR No.100007
Book TitleVivek Chudamani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShankaracharya, Madhavanand Swami
PublisherAdvaita Ashram
Publication Year
Total Pages445
LanguageSanskrit
ClassificationInterfaith & Interfaith
File Size19 MB
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