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________________ १७५ उपदेशका उपसंहार रागु-प्रस्त कहते हैं; वैसे ही देहादि-बन्धनसे छूटे हुए ब्रह्मवेत्ताका आभासमात्र शरीर देखकर अज्ञानीजन उसे देहयुक्त-सा मानते हैं । . अहिनिलयनीवार्य मुक्तदेहस्तु तिष्ठति । इतस्ततश्चाल्यमानो यत्किञ्चित्प्राणवायुना ॥५५०॥ यह मुक्त पुरुषका शरीर तो साँपकी काँचुलीके समान प्राणवायुद्वारा कुछ इधर-उधर चलायमान होता हुआ पड़ा रहता है। [ उसमें कर्तृत्वाभिमानका अत्यन्ताभाव होनेके कारण वास्तवमें क्रिया नहीं होती] | स्रोतसा नीयते दारु यथा निम्नोन्नतस्थलम् । दैवेन नीयते देहो यथाकालोपभुक्तिषु ॥५५१॥ जैसे जलके प्रवाहसे लकड़ी ऊँचे-नीचे स्थानोंमें बहा ले जायी जाती है, उसी प्रकार दैवके द्वारा ही उसका शरीर समयानुकूल भोगोंको प्राप्त करता है। प्रारब्धकर्मपरिकल्पितवासनाभिः । संसारिवञ्चरति भुक्तिषु मुक्तदेहः । सिद्धः वयं वसति साक्षिवदत्र तूष्णीं चक्रस्य मूलमिव कल्पविकल्पशून्यः॥५५२॥ मुक्त पुरुषका शरीर प्रारब्धकर्मसे कल्पित वासनाओंद्वारा संसारी पुरुषके समान नाना भोगोंको भोगता है। सिद्ध पुरुष तो स्वयं कुलाल-चक्रके मूलकी भाँति संकल्प-विकल्पसे रहित होकर साक्षी-भाक्से मौन होकर रहता है। नैवेन्द्रियाणि विषयेषु नियुक्त एष नैवोपयुक्त उपदर्शनलक्षणस्यः । http://www.Apnihindi.com
SR No.100007
Book TitleVivek Chudamani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShankaracharya, Madhavanand Swami
PublisherAdvaita Ashram
Publication Year
Total Pages445
LanguageSanskrit
ClassificationInterfaith & Interfaith
File Size19 MB
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