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बोधोपलब्धि
मुझ सदा एक रस और निरवयवकी न किसी विषय में प्रवृत्ति है और न किसीसे निवृत्ति । भला जो निरन्तर एकरूप घनीभूत और आकाशके समान पूर्ण है वह किस प्रकार चेष्टा कर सकता है ।
पुण्यानि पापानि निरिन्द्रियस्य
कुतो
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निश्चेतसो निर्विकृतेर्निराकृतेः । ममाखण्डसुखानुभूते
ब्रूते नन्वागतमित्यपि श्रुतिः ||५०४ ||
इन्द्रिय, चित्त, विकार और आकृतिसे रहित मुझ अखण्ड आनन्दखरूपको पाप या पुण्य कैसे हो सकते हैं ? और 'अनन्वागतं पुण्येनानन्वागतं पापेन' * ( बृह ० ४ । ३ । २२ ) यह श्रुति भी ऐसा ही बतलाती है।ndi. com
छायया स्पृष्टमुष्णं वा शीतं वा सुष्ठु दुष्ठु वा । न स्पृशत्येव यत्किञ्चित्पुरुषं तद्विलक्षणम् ||५०५ || न साक्षिणं साक्ष्यधर्माः संस्पृशन्ति विलक्षणम् । अविकारमुदासीनं गृहधर्माः प्रदीपवत् ||५०६ ॥ जैसे उष्ण-शीत, अच्छी-बुरी- -कैसी ही वस्तु छायासे छू जानेपर भी उससे सर्वथा पृथक् पुरुषका तनिक भी स्पर्श नहीं कर सकती तथा घरको प्रकाशित करनेवाले दीपकपर जैसे घरके [ सुन्दरता, मलिनता आदि ] किसी धर्मका कोई प्रभाव नहीं होता वैसे ही शरीर आदि दृश्य पदार्थोंके धर्म उनसे विलक्षण
* यह आत्मा पुण्य ( शास्त्रविहित कर्म ) और पाप ( शास्त्रनिषिद्ध कर्म ) से असम्बद्ध है ।
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