________________
विवेक-चूडामणि
आकाशवल्लेपविदूरगोऽह
आहार्यवमित्यविनिश्चलोऽह
मादित्यवद्भास्यविलक्षणोऽहम् ।
मम्भोधिवत्पार विवर्जितोऽहम् ॥५०० ||
मैं आकाशके समान निर्लेप हूँ, सूर्यके समान अप्रकाश्य हूँ, पर्वतके समान नित्य निश्चल हूँ और समुद्रके समान अपार हूँ ।
न मे देहेन सम्बन्धो मेघेनेव विहायसः । अतः कुतो मे तद्धर्मा जाग्रत्स्वमसुषुप्तयः ||५०१ ॥ जैसे मेघसे आकाशका कोई सम्बन्ध नहीं है वैसे ही मेरा भी शरीरसे कोई सम्बन्ध नहीं है, तो फिर इस शरीर के धर्म जाग्रत्, स्वप्न और सुषुप्ति आदि मुझमें कैसे हो सकते हैं Com उपाधिरायाति स एव गच्छति
स
स एव कर्माणि करोति भुझे ।
एव जीर्यन्प्रियते सदाई
१६०
कुलाद्रिवनिश्चल एव संस्थितः ||५०२ ||
उपाधि ही आती है, वही जाती है तथा वही कर्मों को करती और उनके फल भोगती है तथा वृद्धावस्थाके प्राप्त होनेपर वही मरती है। मैं तो कुल पर्वत के समान नित्य निश्चल भावसे ही रहता हूँ ।
न मे प्रवृत्तिर्न च मे निवृत्तिः सदैकरूपस्य एकात्मको यो निविडो निरन्तरो
निरंशकस्य ।
व्योमेव पूर्णः स कथं नु चेष्टते ॥ ५०३ ॥
http://www.ApniHindi.com