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________________ विवेक-चूडामणि १४८ इसी प्रकार सदा ब्रह्मभावमें रहनेवाला पुरुष ब्रह्मरूपसे ही स्थित रहता है, वह [ ब्रह्मके सिवा ] और कुछ नहीं देखता । जैसे स्वप्नमें देखे हुए पदार्योंकी याद आया करती है वैसे ही विद्वान्की भोजन करना और छोड़ना आदि क्रियाएँ स्वभाववश अपने आप हुआ करती हैं। .. कर्मणा निर्मितो देहः प्रारब्धं तस्य कल्प्यताम् । नानादेरात्मनो युक्तं नैवात्मा कर्मनिर्मितः ॥४५९॥ देह कर्मोहीसे बना हुआ है, अतः प्रारब्ध भी उसीका समझना चाहिये, अनादि आत्माका प्रारब्ध मानना ठीक नहीं, क्योंकि आत्मा कर्मोंसे बना हुआ नहीं है। अजो नित्य इति ब्रूते श्रुतिरेषा त्वमोघवाक् । तदात्मना तिष्ठतोऽस्य कुतः प्रारब्धकल्पना ॥४६०॥ आत्मा अजन्मा, नित्य और अनादि है। ऐसा यथार्थ कथन करनेवाली श्रुति कहती है, फिर उस आत्मस्वरूपसे ही सदा स्थित रहनेवाले विद्वान्के प्रारब्धकर्म शेष रहनेकी कल्पना कैसे हो सकती है ? प्रारब्धं सिध्यति तदा यदा देहात्मना स्थितिः। देहात्मभावो नैवेष्टः प्रारब्धं त्यज्यतामतः ॥४६१॥ प्रारब्ध तो तभीतक सिद्ध होता है जबतक देहमें आत्मभावना रहती है और देहात्मभाव मुमुक्षुके लिये इष्ट नहीं है; इसलिये प्रारब्धकी अवस्थाको भी छोड़ देना चाहिये । http://www.Apnihindi.com
SR No.100007
Book TitleVivek Chudamani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShankaracharya, Madhavanand Swami
PublisherAdvaita Ashram
Publication Year
Total Pages445
LanguageSanskrit
ClassificationInterfaith & Interfaith
File Size19 MB
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