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जीवन्मुकंके लक्षण प्रतीत होता हुआ भी जो निरन्तर अपने निर्विकार खरूपमें ही स्थित रहता है तथा जो चित्तयुक्त होनेपर निश्चिन्त है वह पुरुष जीवन्मुक्त माना जाता है।
वर्तमानेऽपि देहेऽसिञ्छायावदनुवर्तिनि । अहंताममताभावो जीवन्मुक्तस्य लक्षणम् ॥४३२॥
प्रारब्धकी समाप्तिपर्यन्त छायाके समान सदैव साथ रहनेवाले इस शरीरके वर्तमान रहते हुए भी इसमें अहं-ममभाव ( मैंमेरापन ) का अभाव हो जाना जीवन्मुक्तका लक्षण है ।
अतीताननुसन्धानं भविष्यदविचारणम् । औदासीन्यमपि प्राप्ते जीवन्मुक्तस्य लक्षणम् ॥४३३॥
बीती हुई बातको याद न करना, भविष्यकी चिन्ता न करना और वर्तमानमें प्राप्त हुए सुख-दुःखादिमें उदासीनता-यह जीवन्मुक्तका लक्षण है।
गुणदोषविशिष्टेऽसिन्स्वभावेन विलक्षणे । सर्वत्र समदर्शित्वं जीवन्मुक्तस्य लक्षणम् ॥४३४॥
अपने आत्मखरूपसे सर्वथा पृथक् इस गुण-दोषमय संसारमें सर्वत्र समदर्शी होना जीवन्मुक्तका लक्षण है।
इष्टानिष्टार्थसम्प्राप्तौ समदर्शितयात्मनि । उभयत्राविकारित्वं जीवन्मुक्तस्य लक्षणम् ॥४३५॥
इष्ट अथवा अनिष्ट वस्तुकी प्राप्तिमें समानभाव रखनेके कारण दोनों ही अवस्थाओंमें चित्तमें कोई भी विकार न होना जीवन्मुक्त पुरुषका लक्षण है।
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