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________________ विवेक-चूडामणि १३० भी कहती है कि ब्रह्म अद्वितीय है। और यह निश्चय है, जिनको यह बोध हुआ है कि मैं ब्रह्म ही हूँ वे बाह्य विषयोंको सर्वथा त्याग कर ब्रह्मभावसे सदा सच्चिदानन्दस्वरूपसे ही स्थित रहते हैं। जहि मलमयकोशेऽहंधियोत्थापिताशां प्रसभमनिलकल्पे लिङ्गदेहेऽपि पश्चात् । निगमगदितकीर्ति नित्यमानन्दमूर्ति खयमिति परिचीय ब्रह्मरूपेण तिष्ठ ॥३९६॥ इस मलमय कोशमें अहंबुद्धिसे हुई आसक्तिको छोड़ो और इसके पश्चात् वायुरूप लिङ्गदेहमें भी उसका दृढ़तापूर्वक त्याग करो, तया जिसकी कीर्तिका वेद बखान करते हैं उस आनन्दस्वरूप ग्रामको ही अपना खरूप जानकर सदा ब्रह्मरूपसे ही स्थिर होकर रहो। शवाकारं यावद्धजति मनुजस्तावदशुचिः परेभ्यः स्यात्क्लेशो जननमरणव्याधिनिलयः । यदात्मानं शुद्धं कलयति शिवाकारमचलं तदा तेभ्यो मुक्तो भवति हि तदाह श्रुतिरपि ॥३९७।। श्रुति भी यही कहती है कि मनुष्य जबतक इस मृतकतुल्य देहमें आसक्त रहता है तबतक वह अत्यन्त अपवित्र रहता है और जन्म, मरण तथा व्याधियोंका आश्रय बना रहकर उसको दूसरोंसे अत्यन्त क्लेश भोगना पड़ता है। किन्तु जब वह अपने कल्याणखरूप, अचल और शुद्ध आस्माका साक्षात्कार कर लेता है तो उन समस्त केशोंसे मुक्त हो जाता है । http://www.Apnihindi.com
SR No.100007
Book TitleVivek Chudamani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShankaracharya, Madhavanand Swami
PublisherAdvaita Ashram
Publication Year
Total Pages445
LanguageSanskrit
ClassificationInterfaith & Interfaith
File Size19 MB
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