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________________ विवेक-चूडामणि प्रमाद - निन्दा दृश्यं प्रतीतं प्रविलापयन्स्वयं सन्मात्रमानन्दघनं विभावयन् । सन्बहिरन्तरं वा समाहितः १०४ कालं नयेथाः सति कर्मबन्धे ॥ ३२९ ॥ यदि तुम्हारा कर्मबन्धन अभी शेष है तो इस प्रतीयमान दृश्यका लय करते हुए तथा बाहर भीतर से सावधान रहकर अपने सत्तामात्र आनन्दघन स्वरूपका चिन्तन करते हुए काल-क्षेप करो । प्रमादो ब्रह्मनिष्ठायां न कर्तव्यः कदाचन । प्रमादो मृत्युरित्याह भगवान्ब्रह्मणः सुतः || ३२२|| ब्रह्मविचारमें कभी प्रमाद ( असावधानी ) न करना चाहिये, क्योंकि ब्रह्माजी के पुत्र ( भगवान् सनत्कुमारजी ) ने 'प्रमाद मृत्यु है' ऐसा कहा है । न प्रमादादनर्थोऽन्यो ज्ञानिनः स्वस्वरूपतः । ततो मोहस्ततोऽहंधीस्ततो बन्धस्ततो व्यथा ॥ ३२३ ॥ विचारवान् पुरुषके लिये अपने स्वरूपानुसन्धान से प्रमाद करनेसे बढ़कर और कोई अनर्थ नहीं है, क्योंकि इसीसे मोह होता है और मोहसे अहंकार, अहंकार से बन्धन तथा बन्धनसे क्लेशकी प्राप्ति होती है । विषयाभिमुखं दृष्ट्वा विद्वांसमपि विस्मृतिः । विक्षेपयति श्रीदोषेर्योषा जारमिव प्रियम् ॥ ३२४ ॥ http://www.ApniHindi.com
SR No.100007
Book TitleVivek Chudamani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShankaracharya, Madhavanand Swami
PublisherAdvaita Ashram
Publication Year
Total Pages445
LanguageSanskrit
ClassificationInterfaith & Interfaith
File Size19 MB
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