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________________ १०२ विवेक चूडामणि कार्यप्रवर्धनाद्वीजप्रवृद्धिः परिदृश्यते । कार्यनाशाद्वीजनाशस्तस्मात्कार्य निरोधयेत् ॥३१३॥ कार्यके बढ़नेसे उसके बीजकी वृद्धि होती भी देखी जाती है और कार्यका नाश हो जानेसे बीज भी नष्ट हो जाता है। इसलिये कार्यका ही नाश कर देना चाहिये । वासनावृद्धितः कार्य कार्यवृद्धया च वासना । वर्धते सर्वथा पुंसः संसारो न निवर्तते ॥३१४॥ वासनाके बढ़नेसे कार्य बढ़ता है और कार्यके बढ़नेसे वासना बढ़ती है। इस प्रकार मनुष्यका संसार-बन्धन बिल्कुल नहीं छूटता । संसारबन्धविच्छित्त्यै तवयं प्रदहेद्यतिः । वासनाधुद्धिरेताभ्यां चिन्तया क्रियया बहिः ॥३१५॥ इसलिये संसार-बन्धनको काटनेके लिये मुनि इन दोनोंका नाश करे । विषयोंकी चिन्ता और बाह्य-क्रिया इनसे ही वासनाकी वृद्धि होती है। ताभ्यां प्रवर्धमाना सा सूते संसृतिमात्मनः । त्रयाणां च क्षयोपायः सर्वावस्थासु सर्वदा ॥३१६॥ सर्वत्र सर्वतः सर्व ब्रह्ममात्रावलोकनम् । सद्भाववासनादाढर्थात्तत्त्रयं लयमश्नुते ॥३१७॥ और इन दोनोंसे ही बढ़कर वह वासना आत्माके लिये संसाररूप बन्धन उत्पन्न करती है। इन तीनोंके क्षयका उपाय सब अवस्थाओंमें सदा सब जगह सब ओर सबको ब्रह्ममात्र देखना ही http://www.Apnihindi.com
SR No.100007
Book TitleVivek Chudamani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShankaracharya, Madhavanand Swami
PublisherAdvaita Ashram
Publication Year
Total Pages445
LanguageSanskrit
ClassificationInterfaith & Interfaith
File Size19 MB
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