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विवेक-चूडामणि
___ अहंकाररूपी ग्रह (राहु ) से मुक्त हो जानेपर चन्द्रमाके समान आत्मा निर्मल, पूर्ण एवं नित्यानन्दस्वरूप खयंप्रकाश होकर अपने खरूपको प्राप्त हो जाता है। यो वा पुरे सोऽहमिति प्रतीतो
बुद्धया विक्लप्तस्तमसातिमूढया । तस्यैव निःशेषतया विनाशे
ब्रह्मात्मभावः प्रतिबन्धशून्यः ॥३०२॥ अज्ञानसे अत्यन्त मोहित बुद्धिकी कल्पनासे इस शरीरमें ही जो यही मैं हूँ'-ऐसी प्रतीति हो रही है, उसका सर्वथा नाश हो जानेपर ब्रह्ममें निर्बाध आत्मभाव हो जाता है।
ब्रह्मानन्दनिधिर्महाबलवताहङ्कारपोराहिना संवेष्टयात्मनि रक्ष्यते गुणमयैश्चण्डैस्विमिर्मस्तकैः । विज्ञानाख्यमहासिना द्युतिमता विच्छिद्य शीर्षत्रयं निर्मूल्याहिमिमंनिधि सुखकरं धीरोऽनुमोक्तुं क्षमः ३०३
ब्रह्मानन्दरूपी परमधनको अहंकाररूप महाभयङ्कर सर्पने अपने सत्त्व, रज, तमरूप तीन प्रचण्ड मस्तकोंसे लपेटकर छिपा रक्खा है; जब विवेकी पुरुष अनुभव-ज्ञानरूप चमचमाते हुए महान् खड्गसे इन तीनों मस्तकोंको काटकर इस सर्पका नाश कर देता है, तभी वह इस परम आनन्ददायिनी सम्पत्तिको भोग सकता है।
यावद्वा यत्किश्चिद्विषदोषस्फूर्तिरस्ति चेद्देहे । कथमारोग्याय मवेत्तदहन्तापि योगिनो मुक्त्यै । ३०४॥
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