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________________ ९७ त्यजामिमानं कुलगोत्रनाम - रूपाश्रमेष्वार्द्रशवाश्रितेषु लिङ्गस्य धर्मानपि कर्तृतादीं अहंकार-निन्दा स्त्यक्त्वा भवाखण्ड सुखस्वरूपः ।। २९८॥ इसलिये लिबलिबे मांस- पिण्डके आश्रित रहनेवाले, कुल, गोत्र, नाम, रूप और आश्रमका अभिमान छोड़ो तथा कर्तापन, भोक्ता आदि लिंगदेहके धर्मोको भी त्यागकर अखण्ड आनन्दस्वरूप हो जाओ । अहंकार - निन्दा सन्त्यन्ये प्रतिबन्धाः पुंसः संसारहेतवो दृष्टाः । तेषामेकं मूलं प्रथमविकारो भवत्यहङ्कारः ||२९९॥ पुरुषको इस संसार -बन्धनकी प्राप्तिके कारणरूप और भी अनेक प्रतिबन्ध हैं; किन्तु उन सबका मूल प्रथम विकार अहंकार ही है, [ क्योंकि अन्य समस्त अनात्मभावोंका प्रादुर्भाव इसीसे होता है ] । यावत्स्यात्स्वस्य सम्बन्धोऽहङ्कारेण दुरात्मना । तावन्न लेशमात्रापि मुक्तिवार्ता विलक्षणा ॥ ३००॥ जबतक इस दुरात्मा अहङ्कारसे आत्माका सम्बन्ध है, तबतक मुक्ति-जैसी विलक्षण बातकी लेशमात्र भी आशा न रखनी चाहिये । अहङ्कारग्रहान्मुक्तः स्वरूपमुपपद्यते । चन्द्रवद्विमलः पूर्णः सदानन्दः स्वयंप्रमः || ३०१ ॥ वि० न० 1 http://www.ApniHindi.com
SR No.100007
Book TitleVivek Chudamani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShankaracharya, Madhavanand Swami
PublisherAdvaita Ashram
Publication Year
Total Pages445
LanguageSanskrit
ClassificationInterfaith & Interfaith
File Size19 MB
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