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मनोमय कोश
ज्ञानेन्द्रियाँ और मन ही 'मैं, मेरा' आदि विकल्पोंका हेतु मनोमय कोश है, जो नामादि भेद-कलनाओंसे जाना जाता है और बड़ा बलवान् है, तथा पूर्व-कोशोंको व्याप्त करके स्थित है । पञ्चेन्द्रियैः पञ्चमिरेव होमिः
जाज्वल्यमानो
प्रचीयमानो विषयाज्यधारया | बहुवासनेन्धनैमनोमयाग्निर्दहति प्रपञ्चम् ॥ १७० ॥
पचेन्द्रियरूप पाँच होताओंद्वारा विषयरूपी घृतकी आहुतियोंसे बढ़ाया हुआ तथा नाना प्रकारकी वासनारूप ईंधन से प्रज्वलित हुआ यह मनोमय अग्नि ( यज्ञ ) सम्पूर्ण दृश्य-प्रपञ्चको देता दग्ध कर देता है । [ जिस समय इन्द्रियाँ वासनारूपी ईंधनको जलाकर प्रकट किये मनोमय अग्निमें विषयोंको हवन कर देती हैं उस समय यह सम्पूर्ण प्रपश्च लीन हो जाता है ] ।
न ह्यस्त्यविद्या मनसोऽतिरिक्ता
मनो ह्यविद्या भवबन्धहेतुः । तस्मिन्विनष्टे सकलं विनष्टं
विजृम्भितेऽस्मिन्सकलं विजृम्भते ॥ १७१ ॥
मनसे अतिरिक्त अविद्या और कुछ नहीं है, मन ही भवबन्धनकी हेतुभूता अविद्या है । उसके नष्ट होनेपर सब नष्ट हो जाता है और उसीके जाग्रत् होनेंपर सब कुछ प्रतीत होने लगता है ।
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