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________________ विवेकचूडामणि त्वद्मांसमेदोऽस्थिपुरीषराशावहंमर्ति विलक्षणं वेति निजस्वरूपं करोति । परमार्थभूतम् ॥१६१॥ त्वचा, मांस, मेद, अस्थि और मलकी राशिरूप इस देह में मूढजन ही अहंबुद्धि करते हैं । विचारशील तो अपने पारमार्थिक स्वरूपको इससे पृथक् ही जानते हैं । मूढजनः विचारशीलो देहोऽहमित्येव जडस्य बुद्धि देहे च जीवे विदुषस्त्वहंधीः । महात्मनो विवेकविज्ञानवतो ५४ iHind ब्रह्माहमित्येव मतिः सदात्मनि ॥ १६२॥ as पुरुषोंकी 'मैं देह हूँ — ऐसी देहमें अहंबुद्धि होती है, विद्वान् ( शास्त्रज्ञ ) की जीवमें और विवेक - विज्ञानयुक्त महात्माकी 'मैं ब्रह्म हूँ' - ऐसी सत्य आत्मामें ही अहंबुद्धि होती है । अत्रात्मबुद्धि त्यज सर्वात्मनि मूढबुद्धे त्वयांसमेदोऽस्थिपुरीषराशौ । ब्रह्मणि निर्विकल्पे कुरुष्व शान्तिं परमां भजस्व || १६३॥ अरे मूर्ख ! इस त्वचा, मांस, मेद, अस्थि और मलादिके समूहमें आत्मबुद्धि छोड़ और सर्वात्मा निर्विकल्प ब्रह्ममें ही आत्मभाव करके परम शान्तिका भोग कर । http://www.ApniHindi.com
SR No.100007
Book TitleVivek Chudamani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShankaracharya, Madhavanand Swami
PublisherAdvaita Ashram
Publication Year
Total Pages445
LanguageSanskrit
ClassificationInterfaith & Interfaith
File Size19 MB
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