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मन्नमय कोश पूर्व जनेरपि मृतेरपि नायमस्ति
जातः क्षणं क्षणगुणोनियतस्वभावः । नैको जडश्च घटवत्परिदृश्यमानः
स्वात्मा कथं भवति भावविकारवेत्ता ॥१५७॥ यह जन्मसे पूर्व और मृत्युके पश्चात् भी नहीं रहता, क्षणमें जन्म लेता है, क्षणिक गुणवाला है और अस्थिरस्वभाव है; तथा अनेक तत्त्वोंका संघात, जड और घटके समान दृश्य है, फिर यह भाव-विकारोंका जाननेवाला अपना आत्मा कैसे हो सकता है ।
पाणिपादादिमान्देहो नात्मा व्यङ्गेऽपि जीवनात् । तत्तच्छक्तरनाशाच न नियम्यो नियामकः ॥१५८॥
यह हाथ-पैरोंवाला शरीर आत्मा नहीं हो सकता, क्योंकि उसके अंग-भंग होनेपर भी अपनी शक्तिका नाश न होनेके कारण पुरुष जीवित रहता है । इसके सिवा जो शरीर स्वयं शासित है, वह शासक आत्मा कभी नहीं हो सकता।
देहतद्धर्मतत्कर्मतदवस्थादिसाक्षिणः । स्वत एव स्वतः सिद्धं तद्वैलक्षण्यमात्मनः ॥१५९॥
देह, उसके धर्म, उसके कर्म तथा उसकी अवस्थाओंके साक्षी आत्माकी उससे पृथक्ता स्वयं ही स्वतःसिद्ध है।
कुल्यराशिर्मासलिप्तो मलपूर्णोऽतिकश्मलः । कथं भवेदयं वेत्ता स्वयमेतद्विलक्षणः ॥१६०॥
हड्डियोंका समूह, मांससे लिथड़ा हुआ और मलसे भरा हुआ यह अति कुत्सित देह, अपनेसे भिन्न अपना जाननेवाला स्वयं ही कैसे हो सकता है ?
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