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________________ २१ शिष्य-प्रशंसा श्रीगुरुरुवाच स्व-प्रयलकी प्रधानता धन्योऽसि कृतकृत्योऽसि पावितं ते कुलं त्वया । यदविद्याबन्धमुक्त्या ब्रह्मीभवितुमिच्छसि ॥५२॥ गुरु- तू धन्य है, कृतकृत्य है, तेरा कुल तुझसे पवित्र हो गया, क्योंकि तू अविद्यारूपी बन्धनसे छूटकर ब्रह्मभावको प्राप्त होना चाहता है । स्व-प्रयत्नकी प्रधानता ऋणमोचन कर्तारः पितुः सन्ति सुतादयः । बन्धमोचनकर्ता तु स्वस्मादन्यो न कश्चन ॥ ५३ ॥ पिताके ऋणको चुकानेवाले तो पुत्रादि भी होते हैं, परन्तु भवबन्धनसे छुड़ानेवाला अपनेसे भिन्न और कोई नहीं है । मस्तकन्यस्तभारादेर्दुःखमन्यैर्निवार्यते 1 क्षुदादिकृतदुःखं तु विना स्वेन न केनचित् ॥५४॥ [जैसे ] शिरपर रखे हुए बोझेका दुःख और भी दूर कर सकते हैं, परन्तु भूख-प्यास आदिका दुःख अपने सिवा और कोई नहीं मिटा सकता । पथ्यमौषधसेवा च क्रियते येन रोगिणा । आरोग्यसिद्धिर्दृष्टास्य नान्यानुष्ठितकर्मणा ॥ ५५ ॥ अथवा जैसे जो रोगी पथ्य और औषधका सेवन करता है http://www.ApniHindi.com
SR No.100007
Book TitleVivek Chudamani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShankaracharya, Madhavanand Swami
PublisherAdvaita Ashram
Publication Year
Total Pages445
LanguageSanskrit
ClassificationInterfaith & Interfaith
File Size19 MB
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