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________________ भारत का भविष्य को देखने आना चाहता हूं। लेकिन मैं चाहता हूं कि नाटक देखने वाले मुझे न देख सकें। पीछे का कोई दरवाजा आपके थियेटर में है या नहीं? उस मैनेजर ने छपा हुआ उत्तर वापस भेजा। जिसमें छपा हुआ था कि आप आएं, हर गांव में जहां भी हमारा थियेटर जाता है हमें पीछे का दरवाजा रखना ही पड़ता है, क्योंकि सज्जन सामने के दरवाजे से आने को राजी नहीं होते, सज्जन पीछे का दरवाजा मांगते हैं। उनके लिए भी सुविधा बनानी पड़ती है। पीछे दरवाजा है, आप बिलकल आ जाएं। यह छपा हआ कार्ड था, क्योंकि हर जगह जरूरत पड़ती है, लिखने की जरूरत नहीं थी। नीचे लाल स्याही से हाथ से उसने लिखा था कि इतना तो हम भरोसा देते हैं कि कोई आपको देख न सकेगा. लेकिन यह भरोसा हम नहीं दे सकते कि परमात्मा आपको देख सकेगा या नहीं देख सकेगा। हम सब पीछे का दरवाजा खोज लिए हैं। जहां सामने के दरवाजे बंद हो जाते हैं, अवरुद्ध हो जाते हैं, वहां आदमी पीछे का दरवाजा खोजना शुरू कर देता है। हमने धन को गाली दी, इसलिए हमसे ज्यादा कंजूस आज जमीन पर कोई भी नहीं है। हमने धन को हजारों साल गाली दी, लेकिन धन पर जैसी हमारी पकड़ है, ऐसी आज किसी की भी नहीं। यह बड़ा चमत्कार है! यह बड़ा मिरेकल है! यह सोचने जैसा मामला है जो कौम हजारों साल से धन को गाली दे रही है, वह कौम धन से इतने जोर से क्यों चिपटती है? जिस कौम ने सदा कहा कि धन मिट्टी है, वह कौम धन को मिट्टी की तरह छोड़ नहीं पाती। एक पैसा नहीं छोड़ पाती। एक पैसे पर हमारी पकड़ इतनी गहरी है जिसका हिसाब लगाना मुश्किल है। तो मुझे लगता है कि हम धोखा दे रहे हैं। धन को गाली दे रहे हैं, पीछे के रास्ते से धन को पकड़ते चले जा रहे हैं। मैं एक घर में ठहरता था। उस घर के ऊपर दो पश्चिमी परिवार, दो इंजीनियर, वहां कुछ दिन के लिए रुके हुए थे। जिनका मकान था उनके घर में मैं रुकता था। वे जब भी मैं वहां जाता था, तो जरूर उनके बाबत कुछ न कुछ कहते थे कि खाने-पीने में ही लगे रहते हैं, नाचने-गाने में ही लगे रहते हैं। कुछ धर्म नहीं है इनके जीवन में। रात बारह बजे तक नाचते हैं, खाते हैं, पीते हैं, बस यही जिंदगी समझ रखी है इन लोगों ने। जब भी जाता था, वे कोई निंदा करते थे। मैंने उनसे कहा कि मालूम होता है आपके खाने-पीने की वृत्ति तृप्त नहीं हो पाई। पर उनकी समझ में नहीं पड़ा। जब भी जाता था, वे कहते थे, बस पैसा उड़ाते रहते हैं। तो मैंने कहा कि वे अपना पैसा उड़ाते हैं, आपका पैसा नहीं उड़ाते। लेकिन हम इस हालत तक पैसे के पकड़ने वाले हो गए हैं कि दूसरे को पैसा उड़ाता देख कर भी हमको कष्ट होता है। हमारा पैसा भी कोई नहीं उड़ा रहा है। फिर वे चले गए। जब मैं तीसरी बार उनके घर मेहमान था तो मैंने देखा कि वे ऊपर के अतिथि चले गए थे। मैंने उनसे पूछा कि क्या वे लोग चले गए? उन्होंने कहा कि हां, वे लोग चले गए। लेकिन बड़े अजीब लोग थे। जाते वक्त वे अपनी सब चीजें यहीं बांट गए। जो नौकरानी उनके घर में बर्तन साफ करती थी उसको सारे स्टेनलेस स्टील के बर्तन दे गए। बड़े अजीब लोग थे। स्टेनलेस स्टील बहुत अच्छा था उनके पास, वे सारे बर्तनों को दे गए हैं उन्हीं को।। मैंने उनसे कहा, लोभ आपके मन में भी उन बर्तनों को पाने का रहा होगा। लेकिन बड़े भौतिकवादी लोग थे, बर्तन कैसे दे गए? Page 26 of 197 http://www.oshoworld.com
SR No.100002
Book TitleBharat ka Bhavishya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherOsho Rajnish
Publication Year
Total Pages197
LanguageHindi
ClassificationInterfaith & Interfaith
File Size2 MB
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