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भारत का भविष्य
गया है जो यंत्र ने दे दिया है। जिंदगी को हम कितने ज्यादा यंत्र दें इस पर निर्भर करेगा कि हम आदमी को कितनी आत्मा दे दें।
तो मैं नहीं मानता हूं कि गांधी की दृष्टि कोई रचनात्मक है। रचनात्मक दिखाई पड़ती है, वह एपिअरेंस है। लेकिन बहुत गहरे में डिस्ट्रक्टिव है। क्योंकि मनुष्य में जो क्षमता विकास की होनी चाहिए वह उसमें मर जाएगी। अगर गांधी से कोई भी राजी हो जाए, हालांकि कोई राजी नहीं होगा। आप चिल्लाते रहें कोई राजी नहीं होने वाला। क्योंकि विकास के खिलाफ कभी किसी समाज को राजी किया नहीं जा सकता है। हां, थोड़े से सिरफिरे लोगों को राजी किया जा सकता है। थोड़े से इंसेंट्रीक लोगों को जिनको कि दिमाग में बात पकड़ जाती है, वे अपनी कुर्बानी दे सकते हैं। उनको राजी किया जा सकता है। समाज को कभी राजी नहीं किया जा सकता। इसलिए गांधी जी की अपील आजादी के पहले ज्यादा थी। आजादी आते से ही अपील क्षीण हो गई। गांधी को खुद ही लगा कि मैं खोटा सिक्का हो गया हूं। इसमें गांधी खोटे सिक्के नहीं हो गए थे। असल में हमको पहली दफा विकास का मौका मिला और हमको पता चला कि गांधी खतरनाक । इसके साथ विकास हो नहीं सकता। इसको छोड़ना पड़ेगा एक तरफ। लेकिन पूरे मन से हम नहीं छोड़ पाए। तो वह चलता है दोनों – पंचवर्षीय योजना भी चलती है और हमारी बुद्धि में गांधी जी भी चलते हैं । वह जो आप कहते हैं, पंचवर्षीय योजना से क्या हुआ? बहुत कुछ हो सकता था । रूस में बहुत कुछ हुआ। हिंदुस्तान में नहीं हुआ क्योंकि रूस के दिमाग में गांधी नहीं था, सिर्फ पंचवर्षीय योजना थी।
हिंदुस्तान के दिमाग में गांधी और हाथ में पंचवर्षीय योजनाएं ! इन दोनों में विरोध है । ये दोनों नहीं चल सकते साथ। या तो पंचवर्षीय योजना चला लें या गांधी जी को चला लें। ये दोनों हैं इसलिए अहित हो रहा है । और यह जो सारा मैं कह रहा हूं वह इस बात को ध्यान में रख कर कह रहा हूं कि मेरे लिए एक पर्सपैक्टिव है भविष्य का आदमी के लिए। और जो हमारी सामान्य धारणाएं हैं, उन सामान्य धारणाओं को हम कभी सोच नहीं पाते कि हम – अब गांधी जी को हम थर्ड क्लास में चला रहे हैं। बड़ा सादगी मान रहे हैं और महात्मा मान रहे हैं। लेकिन गांधी जैसा आदमी जहां घंटे भर में पहुंच सकता था, वहां अड़तालीस घंटे में पहुंचेगा। ये जो सैंतालीस घंटे गांधी के हमने खराब किए इसका कौन जिम्मेदार होगा ? और गांधी जैसे आदमी को 'खुद हक है ही नहीं कि सैंतालीस घंटे अपने खराब कर दे कि ये तो हमारे घंटे हैं। गांधी जैसे आदमी को हम खराब नहीं करने देंगे लेकिन हम खराब करवाएंगे। अगर विनोबा पैदल चले तो हम और खुश हो जाएंगे। अगर जमीन पर ही सरकने लगे, रेंगने लगे तो हमारी खुशी का कोई अंत न रहे। हम इनको बिलकुल परमहंस मान लेंगे। हमारे सोचने का जो ढंग है वह संकोच वाला है। और जिसको हम रचनात्मक कहते हैं वह रचनात्मक है नहीं।
अब जैसे कि समझ लें, रचनात्मक किसको कहें - एक आदमी ने जिसने बिजली बनाई वह रचनात्मक है या एक आदमी जो एक-एक घर में दीया रखता फिर रहा है वह रचनात्मक है ? रचनात्मक कौन है ? जिस आदमी ने चरखा चला दिया है लोगों को पकड़ा दिया है कि चरखा चलाओ वह आदमी रचनात्मक है या एक आदमी ने एक बटन बनाई है और लाखों चरखे चल रहे हैं उस बटन से वह रचनात्मक है?
नहीं; हमें यह घर-घर में चरखा वाला रचनात्मक मालूम पड़ेगा। और एक-एक आदमी के छह-छह घंटे खराब करना, करोड़ों आदमियों के अरबों घंटे खराब करना है और जिंदगी बहुत छोटी है। इसलिए मैं राजी नहीं हूं ।
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