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भारत का भविष्य
तिब्बत में वे और भी ज्यादा होशियार हैं। उन्होंने प्रेयर-व्हील बना रखा है, उन्होंने एक चक्र बना रखा है। उसको वे प्रार्थना-चक्र कहते हैं। उस चक्र के एक सौ आठ स्पोक हैं। एक-एक स्पोक पर एक-एक मंत्र लिखा हुआ है। सुबह से आदमी बैठ कर उस चक्र को घुमा देता है। जितना चक्का चक्कर लगा लेता है उतनी बार, उतनी बार एक सौ आठ में राणा कावा
गणा करके वह समझ लेता है कि इतनी बार मैंने मंत्र का पाठ किया। वह प्रेयर-व्हील सुबह से आदमी दस दफे घुमा देता है, वह सौ दफे घूम जाता है, एक सौ आठ में सौ का गुणा कर लिया, इतनी बार मैंने भगवान का नाम लिया, अपने काम पर चला जाता है। वे हमसे ज्यादा होशियार हैं। नाम लेने की झंझट भी उन्होंने छोड़ दी। अपना काम भी करते रहते हैं और चक्कर लगा देते हैं। हम भी यही कहते हैं। मन हमारा दूसरा काम करता रहता है और जबान हमारी राम-राम करती रहती है। जबान राम-राम कर रही हो कि एक प्रेयर-व्हील पर राम-राम लिखा हो, क्या फर्क पड़ता है! भीतर मन हमारा कुछ और कर रहा है। अब तो और व्यवस्था हो गई, अभी तब तिब्बत में बिजली नहीं पहुंची थी, अब पहुंच गई होगी। तो अब तो उनको हाथ से भी घुमाने की जरूरत नहीं, बिजली से प्लग लगा देंगे चक्र घूमता रहेगा दिन भर और हजारों दफा राम का स्मरण करने का लाभ मिल जाएगा। आदमी ने अपने को धोखा देने के लिए हजार तरह की तरकीबें ईजाद कर ली हैं। उन्हीं तरकीबों को हम धर्म मानते रहे हैं। और इसीलिए हमारे मुल्क में यह दुविधा खड़ी हो गई है कि हम कहने को धार्मिक हैं और हम जैसा अधार्मिक आचरण आज पृथ्वी पर कहीं भी खोजने से नहीं मिल सकता। हमसे ज्यादा अनैतिक लोग, हमसे ज्यादा चरित्र में गिरे हुए लोग, हमसे ज्यादा ओछे, हम से ज्यादा संकीर्ण, हमसे ज्यादा क्षुद्रता में जीने वाले लोग और कहीं मिलने कठिन हैं, और साथ हमें धार्मिक होने का भी सुख है कि हम धार्मिक हैं। ये दोनों बातें एक साथ चल रही हैं। और कोई यह कहने को नहीं है कि ये दोनों बातें एक साथ कैसे चल सकती हैं। यह ऐसा ही जैसे किसी घर में लोगों को खयाल हो कि हजारों दीये जल रहे हैं और घर अंधकार से भरा हो और जो भी आदमी निकलता हो दीवाल से टकरा जाता हो, दरवाजों से टकरा जाता हो। घर में पूरा अंधकार हो, हर आदमी टकराता हो, फिर भी घर के लोग यह विश्वास करते हैं कि अंधेरा कहां है दीये जल रहे हैं। और रोज हर आदमी टकरा कर गिरता हो। फिर भी घर के लोग मानते चले जाते हों कि दीये जल रहे हैं, रोशनी है, अंधेरा कहां है? हमारी हालत ऐसी कंट्राडिक्ट्री, ऐसे विरोधाभास से भरी हुई है। जीवन हमें रोज बताता है कि हम अधार्मिक हैं
और हमने जो तरकीबें ईजाद कर ली हैं वे रोज हमें बताती हैं कि हम धार्मिक हैं। कि तो देखो दुर्गा उत्सव आ गया और सारा मुल्क धार्मिक हुआ जा रहा है, कि देखो गणेश उत्सव आ गया, कि देखो महावीर का जन्मदिन आ गया और सारा मुल्क मंदिरों की तरफ चला जा रहा है, पूजा चल रही है, प्रार्थना चल रही है। अगर इस सबको कोई आकाश से देखता होगा तो कहता होगा कितने धार्मिक लोग हैं। और कोई हमारे भीतर जाकर देखे, कोई हमारे आचरण को देखे, कोई हमारे व्यक्तित्व को देखे तो हैरान हो जाएगा। शायद मनुष्य-जाति के इतिहास में इतना धोखा पैदा करने में कोई कौम कभी सफल नहीं हो सकी थी जिसमें हम सफल हो गए हैं। यह अदभुत बात है। यह कैसे संभव हो गया? इसका जिम्मा आप पर है ऐसा मैं नहीं कहता हूं। इसका जिम्मा हमारे पूरे इतिहास पर है। यह आज की पीढ़ी ऐसी हो गई है ऐसा मैं नहीं कहता है। आज तक
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