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भारत का भविष्य
जाना हो, क्या तुमने सुख जाना है? उस व्यक्ति ने कहा, सुख, मैं सुख से भरा हुआ हूं, सुख ही सुख है मेरे पास। कहो कैसे आए? वे कहने लगे, हम बहुत खुश हुए, धन्य हमारा भाग्य तुम मिल गए। सम्राट मरण-शय्या पर है उसके लिए वस्त्रों की जरूरत है। एक फकीर ने कहा किसी सुखी और समृद्ध आदमी के वस्त्र मिल जाएं तो सम्राट बच सकता है। वह आदमी एकदम चुप हो गया बांसुरी बजाने वाला और कहने लगा मैं अपनी जान दे सकता हूं सम्राट को बचाने के लिए। सुखी भी मैं बहुत हूं, शांत भी बहुत हूं, लेकिन वस्त्र! मैं नंगा बैठा हूं! अंधेरे मैं तुम्हें शायद दिखाई नहीं पड़ता, मेरे पास कपड़े नहीं हैं। कपड़े मेरे पास हैं ही नहीं, मैं क्या कर सकता हूं? उस रात वह सम्राट मर गया। क्योंकि लोग मिले जिनके पास कपडे थे लेकिन शांति न थी। फिर एक आदमी मिला जिसके पास शांति थी लेकिन कपड़े न थे। पश्चिम मर रहा है कपड़ों के कारण। हम मर रहे हैं नंगेपन के कारण! इन दोनों के बीच कोई सेतु चाहिए। इन दोनों के बीच कोई सिंथेसिस, कोई समन्वय चाहिए। एक ऐसी मनुष्यता चाहिए जिसके पास शांति भी हो और समृद्धि भी हो। अगर हम ऐसी मनुष्यता नहीं खोज सकते तो आदमी इस पृथ्वी पर बहुत दिन नहीं रह सकेगा। या तो वस्त्रों के ढेर में दब कर मर जाएगा या नंगेपन में मर जाएगा। इसके सिवाय बचने का कोई उपाय नहीं। नहीं, यह मत सोचें कि टेक्नालॉजी और विज्ञान के विकास से आप भौतिकवादी हो जाएंगे। जीवन तो द्वैत है, जीवन में मैटर की जगह है और जीवन में आत्मा की भी जगह है। उन दोनों को एक ही साथ साधा जा सकता है। वे एक साथ सधे हुए हैं। आपके पास कहां शरीर समाप्त होता है, कहां आत्मा शुरू होती है? दोनों जुड़े हैं। दोनों एक साथ हैं। जीवन एक अदभुत समन्वय है। और जब हम अपने विचार-दृष्टि में भी मैटर और परमात्मा के बीच समन्वय स्थापित करते हैं तो हम समग्र संस्कृति को पैदा करने की आधारशिला रखते हैं। अब तक की सारी संस्कृतियां खंडित संस्कृतियां थीं। या तो भौतिकवादी थीं या अध्यात्मवादी थीं। पहली बार, एक संपूर्ण संस्कृति चाहिए जो भौतिकवादी और अध्यात्मवादी एक साथ हो। तब उस संस्कृति के पास शरीर भी होगा और आत्मा भी होगी। और तभी हम मनुष्य को सुख-शांति, सुव्यवस्था और सब कुछ देने में समर्थ हो सकते हैं।
इन तीन दिनों में मेरी इन सब बातों को इतने प्रेम और शांति से सुना, उससे बहुत अनुगृहीत हूं। और अंत में सबके भीतर बैठे परमात्मा को प्रणाम करता हूं, मेरे प्रणाम स्वीकार करें।
दसवां प्रवचन भारत का भविष्य एक बहुत पुराने नगर में उतना ही पुराना एक चर्च था। वह चर्च इतना पुराना था कि उस चर्च में भीतर जाने में भी प्रार्थना करने वाले भयभीत होते थे। उसके किसी भी क्षण गिर पड़ने की संभावना थी। आकाश में बादल गरजते थे तो चर्च के अस्थि-पंजर कंप जाते थे। हवाएं चलती थीं तो लगता था चर्च अब गिरा, अब गिरा। ऐसे चर्च में कौन प्रवेश करता। कौन प्रार्थना करता। धीरे-धीरे उपासक आने बंद हो गए। चर्च के संरक्षकों ने कभी दीवाल का पलस्तर बदला, कभी खिड़की बदली, कभी द्वार रंगे। लेकिन न द्वार रंगने से, न पलस्तर
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