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________________ भारत का भविष्य हैं? भीतर वासना जल रही है, भीतर आकांक्षा जल रही है, ऊपर से संतोष थोपा गया है। और यह जो गाली दी जा रही है स्वर्ण-सिंहासन को, यह उसी संतोष को थोपने की प्रक्रिया का हिस्सा है। हम जिस चीज से भयभीत होते हैं, जिसकी हमारे भीतर आकांक्षा होती है, उसकी हम निंदा करते हैं और निंदा से अपने को समझा लेना चाहते हैं कि वह पाने योग्य नहीं है। जितने साधु-संन्यासी स्त्रियों को छोड़ कर भाग कर जाते हैं, वे निरंतर स्त्रियों को गाली देते रहते हैं। नरक का द्वार है, बचना चाहिए, स्त्री पाप का घर है। और कुल कारण इतना है कि स्त्री उन्हें भीतर से आकर्षित कर रही है। अन्यथा स्त्री को गाली देने की कोई जरूरत नहीं, कोई प्रयोजन नहीं। जिनके भीतर स्त्री का आकर्षण है वह स्त्री को गाली देकर अपने आकर्षण को रोकने और दबाने की चेष्टा कर रहे हैं। जिनके मन से वासना की समाप्ति हो गई है, उन्हें तो स्त्री-पुरुष में भेद दिखाई पड़ना भी असंभव है। उन्हें खयाल भी नहीं आ सकता—कौन स्त्री है, कौन पुरुष! लेकिन भीतर तो भेद मौजूद है, आकांक्षा मौजूद है। उस आकांक्षा से भाग कर गए हैं। आकांक्षा पीछे से धक्के दे रही है। ऊपर ब्रह्मचर्य है, भीतर वासना है। इस ऊपर के ब्रह्मचर्य का कोई भी मूल्य नहीं है। क्योंकि जो भीतर है वही सत्य है। ऊपर शांति, संतोष है, भीतर असंतोष हम जो इस मुल्क में भौतिकवाद को इतनी गाली देते हैं उसका कारण यह मत समझ लेना कि हम बड़े आध्यात्मिक लोग हैं। हम से ज्यादा भौतिकवादी लोग पृथ्वी पर खोजने मुश्किल हैं। लेकिन हम भौतिकवाद को गाली देते हैं और बड़ी तृप्ति पाते हैं कि हम बड़े आध्यात्मिक हैं। भौतिकवाद को गाली देने से सिर्फ आपके भीतर छिपे हुए भौतिकवादी वासनाओं का पता चलता है और कुछ भी नहीं। मैं एक घर में ठहरता था। उस घर के ऊपर स्विटजरलैंड के कुछ दो परिवार रहते थे। जब भी मैं उनके घर में गया, उस घर के लोगों ने मुझे कहा कि ये बड़े भौतिकवादी हैं, बड़े मैटीरियलिस्ट हैं। सिवाय खाने-पीने के, नाच-गाने के इन्हें कोई काम ही नहीं। रात बारह-बारह बजे तक नाचते रहते हैं। एकदम निरे भौतिकवादी हैं। इन्हें सिवाय सुख-सुविधा की किसी चीज से कोई प्रयोजन नहीं। न आत्मा से कोई मतलब है, न परमात्मा से कोई मतलब है। बस धन, धन, खाना-कमाना, मौज करना, बस यही इनका जीवन है। फिर दुबारा में उनके घर गया, तब वे स्विस लोग जा चुके थे। वह घर की गृहिणी मुझे कहने लगी, वे लोग चले गए, बड़े अजीब लोग थे! वे अपनी भासन, बर्तन मलने वाली नौकरानी को सारे स्टील के बर्तन दे गए, बिलकुल असली स्टील! वे अपना रेडियो पड़ोसियों को भेंट कर गए! वे अपने कपड़े-लत्ते सब बांट गए मोहल्ले में! बड़े अजीब लोग थे! मैंने उनसे पूछा कि तुम्हें भी कुछ उन्होंने बांटा, दिया। वे कहने लगे कि नहीं। हमें तो वे यह सोच कर कि ये लोग पैसे वाले हैं कहीं दुखी न हों, कुछ भी नहीं दे गए। लेकिन उन्होंने जब यह कहा तब उनका मन बड़ा दुखी था कि वे कुछ भी नहीं दे गए। फिर भी मैंने कहा, कि उनकी लड़की भीतर से एक रस्सी उठा लाई, एक रेशम की रस्सी। उसने कहा कि यह भर, वे लोग छोड़ गए थे पीछे आंगन में बंधी, तो हमारी मां खोल लाई। बड़ी, बहुत बढ़िया रस्सी है यह, हिंदुस्तान में नहीं मिल सकती। भौतिकवादी, भौतिक संपन्नता से कोई भौतिकवादी नहीं होता। पदार्थ को पकड लेने की कामना से, वासना से कोई भौतिकवादी होता है। Page 131 of 197 http://www.oshoworld.com
SR No.100002
Book TitleBharat ka Bhavishya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherOsho Rajnish
Publication Year
Total Pages197
LanguageHindi
ClassificationInterfaith & Interfaith
File Size2 MB
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