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"आप 'यात्म-कथा' लिखकर क्या करेंगे? यह तो पश्चिमकी प्रथा है। हमारे पूर्व में तो शायद ही किसीने 'आत्म-कथा' लिखी हो। और फिर आप लिखेंगे भी क्या ? आज जिस बातको सिद्धांतके तौरपर मानते हैं, कल उसे न मानने लगें तो? अथवा उस सिद्धांतके अनुसार जो काम आप आज करते हैं उनमें बादको परिवर्तन करना पड़े तो? आपके लेखोंको बहुत लोग प्रमाण मानकर अपना जीवन बनाते हैं। उन्हें यदि गलत रास्ता मिला तो ? इसलिए अभी 'आत्म-कथा'के रूपमें कुछ लिखने की जल्दी न करें तो ठीक होगा।"
इस दलीलका थोड़ा-बहुत असर मुझपर हुआ। पर मैं 'प्रात्म-कथा' कहां लिख रहा हूं? मैं तो 'आत्म-कथा'के बहाने अपने उन प्रयोगोंकी कथा लिखना चाहता हूं, जो मैंने सत्यके लिए समय-समय पर किये हैं। हां, यह बात सही है, कि मेरा सारा जीवन ऐसे ही प्रयोगों से भरा हुआ है । इसलिए यह कथा एक जीवन-वृत्तान्तका रूप धारण कर लेगी। पर यदि इसका एक-एक पृष्ठ मेरे प्रयोगोंके वर्णनसे ही भरा हो तो इस कथाको मैं स्वयं निर्दोष मानूंगा। यह मानता हूं--अथवा यों कहिये, मुझे ऐसा मोह है--कि मेरे तमाम प्रयोग यदि लोगोंके सामने आ जायं, तो इससे उन्हें लाभ ही होगा। राजनैतिक क्षेत्रके मेरे प्रयोगोंको ततॊ भारतवर्ष जानता है-- यही नहीं उन्नत मानी जानेवाली दुनिया भी, थोड़ा बहुत जानती है । पर मेरी दृष्टिमें उसका मूल्य बहुत कम है और चूंकि इन्हीं प्रयोगोंके कारण मुझे 'महात्मा' पद मिला है, इसलिए मेरे नजदीक तो उसका मूल्य बहुत ही कम है । अपने जीवनमें बहुत बार इस विशेषणसे मुझे बड़ा दुःख पहुंचा है। मुझे एक भी ऐसा क्षण याद नहीं पड़ता, जब इस विशेषणसे मैं मन में फूल उठा होऊ। पर, हां, अपने उन आध्यात्मिक प्रयोगोंका वर्णन अवश्य मुझे प्रिय होगा, जिन्हें कि अकेला मैं ही जान सकता हूं और जिनकी बदौलत मेरी राजनैतिक-क्षेत्र संबंधी शक्ति उत्पन्न हुई है। और यदि ये प्रयोग सचमुच प्राध्यात्मिक हों, तो फिर उनमें फूलनेके लिए जगह ही कहां है ? उनके वर्णनका फल तो नम्रताकी वृद्धि ही हो सकती है। ज्यों-ज्यों में विचार करता जाता हूं, अपने भूतकालके जीवनपर दृष्टि डालता जाता हूं त्यों-त्यों मुझे अपनी अल्पता साफसाफ दिखाई देती है । जो बात मुझे करनी है, आज ३० सालसे जिसके लिए मैं उद्योग कर रहा हूं, वह तो है--आग-दर्शन, ईश्वरका साक्षात्कार, मोक्ष ।