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________________ अध्याय १२६ जाति-बहिष्कार मेरे पिताजीके मित्र और सलाहकार, जो कि एक विद्वान् ब्राह्मण हैं, मानते हैं कि मेरे विलायत जानेमें कोई बुराई नहीं । माताजी और भाई साहबने भी इजाजत दे दी है।" मैंने उत्तर दिया । " पर पंचोंका हुक्म तुम नहीं मानोगे ?" "मैं तो लाचार हूं, मैं समझता हूं पंचोंको इस मामलेमें न पड़ना चाहिए।" इस जवाबसे उन मुखियाको गुस्सा आ गया। मुझे दो-चार भली-बुरी सुनाई। मैं चुप बैठ रहा । उन्होंने हुक्म दिया-- “यह लड़का आजसे जात बाहर समझा जाय । जो इसकी मदद करेगा अथवा पहुंचाने जायगा वह जातिका गुनहगार होगा और उससे सवा रुपया जुर्माना लिया जावेगा।" इस प्रस्तावका मेरे दिलपर कुछ असर न हुआ। मैंने मुखियासे बिदा मांगी। अब मुझे यह सोचना था कि इस प्रस्तावका असर भाई साहबपर क्या होगा। वह कहीं डर गये तो? पर सौभाग्यसे वह दृढ़ रहे और मुझे उत्तरमें लिखा कि जातिके इस प्रस्तावके होते हुए भी मैं तुमको विलायत जानेसे नहीं रोदूंगा। इस घटनाके बाद मैं अधिक चिंतातुर हुअा। भाई साहबपर दबाव डाला गया तो ? अथवा कोई और विघ्न खड़ा हो गया तो? इस तरह चिंतासे मैं दिन बिता रहा था कि इतने में खबर मिली कि ४ सितंवरको छूटनेवाले जहाजमें जूनागढ़के एक वकील बैरिस्टर बननेके लिए विलायत जा रहे हैं। मैं भाई साहबके उन मित्रोंसे मिला, जिनसे वह मेरे लिए कह गये थे। उन्होंने सलाह दी कि इस साथको नहीं छोड़ना चाहिए। समय बहुत थोड़ा था। भाई साहबसे तार द्वारा आज्ञा मांगी। उन्होंने दे दी। मैंने बहनोई साहबसे रुपये मांगे। उन्होंने पंचोंकी आज्ञाका जिक्र किया। जाति-बाहर रहना उन्हें मंजूर न हो सकता था। तब अपने कुटुंबके एक मित्रके पास में पहुंचा, और किराये वगैराके लिए आवश्यक रकम मुझे देने और फिर भाई साहबसे वसूल कर लेनेका अनुरोध मैंने किया। उन्होंने न केवल इस बातको स्वीकार ही किया, बल्कि मुझे हिम्मत भी बंधाई। मैंने उनका अहसान मानकर रुपये लिये और टिकिट खरीदा । विलायत-यात्राका सारा सामान तैयार करना था। एक दूसरे अनुभवी
SR No.100001
Book TitleAtmakatha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohandas Karamchand Gandhi, Gandhiji
PublisherSasta Sahitya Mandal Delhi
Publication Year1948
Total Pages518
LanguageHindi
ClassificationInterfaith & Interfaith
File Size70 MB
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