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________________ आत्म-कथा: भाग १ पुस्तक-संग्रहमसे मनुस्मृतिका भाषांतर मेरे हाथ पड़ा। उसमें सृष्टिकी उत्पत्ति आदिका वर्णन पढ़ा। उसपर श्रद्धा न जमी। उलटे कुछ नास्तिकता आ गई। मेरे दूसरे चचेरे भाई जो अभी मौजूद हैं, उनकी बुद्धिपर मुझे विश्वास था। उनके सामने मैंने अपनी शंकायें रक्खीं। परंतु वह मेरा समाधान न कर सके। उन्होंने उत्तर दिया--" बड़े होनेपर इन प्रश्नोंका उत्तर तुम्हारी बुद्धि अपने-आप देने लगेगी। ऐसे-ऐसे सवाल बच्चोंको न पूछने चाहिएं।" मैं चुप हो रहा, पर मनको शांति न मिली। मनुस्मृतिके खाद्याखाद्य-प्रकरणमें तथा दूसरे प्रकरणोंमें भी प्रचलित प्रथाका विरोध दिखाई दिया। इस शंकाका उत्तर भी मुझे प्रायः ऊपर लिखे अनुसार ही मिला। तब यह सोचकर मनको समझा लिया कि एक-न-एक दिन बुद्धिका विकास होगा, तब अधिक पठन और मनन करूंगा; और तब सब कुछ समझमें आने लगेगा। मनुस्मृतिको पढ़कर मैं उस समय तो उससे अहिंसाकी प्रेरणा न पा सका। मांसाहारकी बात ऊपर आ ही चुकी है। उसे तो मनुस्मृतिका भी सहारा मिल गया। यह भी जंत्रा था कि सांप-खटमल आदिको मारना नीति-विहित है । इस समय, मुझे याद है, मैंने धर्म समझकर खटमल इत्यादिको मारा है । पर एक बातने मेरे दिलपर अच्छी जड़ जमा ली। यह सृष्टि नीतिके पायेपर खड़ी है, नीति-मात्रका समावेश सत्यमें होता है। पर सत्यकी खोज तो अभी बाकी है। दिन-दिन सत्यकी महिमा मेरी दृष्टिमें बढ़ती गई, सत्यकी व्याख्या विस्तार पाती गई और अब भी पाती जा रही है । फिर एक नीति-विषयक छप्पय हृदयमें अंकित हो गया। अपकारका बदला अपहार नहीं, बल्कि उपकार हो सकता है, यह बात मेरा जीवन-सूत्र बन बैठी। उसने मुझपर अपनी सत्ता जमानी शुरू की। अपकार करने वालेका भला चाहना और करना मेरे अनुरागका विषय हो चला। उसके अगणित प्रयोग किये। वह चमत्कारी छप्पय यह है-- पाणी आपने पास, भलु भोजन तो बीजे; आवी नमावे शीश, दंडवत कोडे कीजे । आपण घाने दाम, काम महोरो नुं करीए; आप उगारे प्राण ते तणा दुःख मां मरीए ।
SR No.100001
Book TitleAtmakatha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohandas Karamchand Gandhi, Gandhiji
PublisherSasta Sahitya Mandal Delhi
Publication Year1948
Total Pages518
LanguageHindi
ClassificationInterfaith & Interfaith
File Size70 MB
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