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________________ • अध्याय ४१ : एक संवाद ४६७ सावधान कर देनेका विचार किया और यहांतक पानेका कष्ट दिया, जिससे भोले-भाले बंगालियोंकी भांति आप भी भूलमें न रह जायं ।” यह कहकर सेठने अपने एक गुमाश्तेको अपने नमूने लानेके लिए इशारा किया । नमूने रद्दी सूतसे बने हुए कंवलके थे। उन्हें लेकर उन्होंने कहा " देखिए, यह नया माल हमने तैयार किया है । इसकी बाजारमें अच्छी खपत है ; रद्दीसे बना है, इस कारण सस्ता तो पड़ता ही है । इस मालको हम ठेठ उत्तरतक पहुंचाते हैं। हमारे एजेंट चारों ओर फैले हुए हैं। इससे आप यह तो समझ सकते हैं कि हमें आपके सरीखे एजेंटोंकी जरूरत नहीं रहती । सच वात तो यह है कि जहां आप-जैसे लोगोंकी आवाज तक नहीं पहुंचती, वहां हमारे एजेंट और हमारा माल पहुंच जाता है। हां, आपको तो यह भी जान लेना चाहिए कि भारतको जितने मालकी जरूरत रहती है उतना तो हम बनाते भी नहीं। इसलिए स्वदेशीका सवाल तो, खासकर उत्पत्तिका सवाल है। जब हम आवश्यक परिमाणमें कपड़ा तैयार कर सकेंगे और जब उसकी किस्ममें सुधार कर सकेंगे, तब परदेशी कपड़ा अपने-आप आना बंद हो जायगा । इसलिए मेरी तो यह सलाह है कि आप जिस ढंगसे स्वदेशी आंदोलनका काम कर रहे हैं, उस ढंगसे मत कीजिए और नई मिलें खड़ी करनेकी तरफ अपना ध्यान लगाइए। हमारे यहां स्वदेशी मालको खपानेका अांदोलन आवश्यक नहीं है, आवश्यकता तो स्वदेशी माल उत्पन्न करनेकी है।” “अगर मैं यह काम करता होऊं तो आप मुझे आशीर्वाद देंगे न ?" मैंने कहा । __“यह कैसे ? अगर आप मिल खड़ी करनेकी कोशिश करते हों तो आप धन्यवादके पात्र हैं।" _ “यह तो मैं नहीं करता हूं। हां चरखेके उद्धार-कार्य में अवश्य लगा हुआ हूं।" “यह कौनसा काम है ?" मैंने चरखेकी बात सुनाई और कहा-- " मैं आपके विचारोंसे सहमत होता जा रहा हूं। मुझे मिलोंकी एजेंसी नहीं लेनी चाहिए । उसो तो लाभके बदले हानि ही है । मिलोंका माल
SR No.100001
Book TitleAtmakatha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohandas Karamchand Gandhi, Gandhiji
PublisherSasta Sahitya Mandal Delhi
Publication Year1948
Total Pages518
LanguageHindi
ClassificationInterfaith & Interfaith
File Size70 MB
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