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अध्याय ४० मिल गया
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जौहरी के बंगलेके पाससे तांतकी आवाज करता हुआ एक धुनिया रोज निकला करता था। मैंने उसे बुलाया । वह गद्दे-गद्दियोंकी रुई धुनता था। उसने पूनियां तैयार करके देना मंजूर किया; लेकिन भाव ऊंचा मांगा और मैंने दिया भी। इस तरह तैयार सूत मैंने वैष्णवोंको ठाकुरजीकी मालाके लिए पैसे लेकर बेचा। भाई शिवजीने बंबईमें चरखाशाला खोली। इस प्रयोगमें रुपये ठीकठीक खर्च हुए। श्रद्धालु देशभक्तोंने रुपये दिये और मैंने उन्हें खर्च किया । मेरी नम्र सम्मतिमें यह खर्च व्यर्थ नहीं गया। उससे बहुत कुछ सीखनेको मिला; साथ ही मर्यादाकी माप मिली।
अब मैं एकदम खादीमय होनेके लिए अधीर हो उठा। मेरी धोती देसी मिलके कपड़ेकी थी। बीजापुरमें और पाश्रममें जो खादी बनती थी वह बहुत मोटी और तीस इंचके अर्जकी होती थी। मैंने गंगाबहनको चेताया कि अगर वह पैंतालीस इंच अर्जकी खादीकी धोती एक महीने के भीतर न दे सकेंगी तो मुझे मोटी खादीका पंचा पहनकर काम चलाना पड़ेगा। गंगाबहन घबराईं, उन्हें यह मीयाद कम मालूम हुई; लेकिन हिम्मत नहीं हारी। उन्होंने एक महीनेके भीतर ही मुझे पचास इंच अर्जका धोती-जोड़ा ला दिया और मेरी दरिद्रता दूर कर दी।
- इसी बीच भाई लक्ष्मीदास लाठीगांवसे अंत्यज भाई रामजी और उनकी पत्नी गंगाबहनको आश्रममें लाये और उनके द्वारा लंबे अर्जकी खादी बुनवाई । खादीके प्रचारमें इस दंपतीका हिस्सा ऐसा-वैसा नहीं कहा जा सकता। उन्हींने गुजरातमें और गुजरातके बाहर हाथ-कते सूतको बुननेकी कला दूसरोंको सिखाई है। यह निरक्षर लेकिन संस्कृत बहन जब करघा चलाने बैठती हैं तो उसमें इतनी तल्लीन हो जाती हैं कि इधर-उधर देखनेकी या किसी के साथ बात करनेकी भी फुरसत अपने लिए नहीं रहने देतीं ।