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________________ ४८६ आत्म-कथा : भाग ५ समयतक जेल में नहीं रख सकती थी। अतः कांग्रेसके अधिवेशनके पहले ही बहुतेरे कैदी छूट गये थे। लाला हरकिशनलाल इत्यादि सब नेता रिहा कर दिये गये थे और कांग्रेसका अधिवेशन हो ही रहा था कि अली-भाई भी छुटकर या पहुंचे। इससे लोगोंके हर्षकी सीमा न रही। पंडित मोतीलाल नेहरू जो अपनी वकालत बंद करके पंजाबमें डेरा डाले बैठे थे, कांग्रेसके अध्यक्ष थे। स्वामी श्रद्धानंदजी स्वागत-समितिके सभापति थे । अबतक कांग्रेसमें मेरा काम इतना ही रहता था--हिंदी में एक छोटासा भाषण करके हिंदीकी वकालत करना और प्रवासी भारतवासियोंका पक्ष उपस्थित कर देना। अमृतसरमें मुझे यह पता न था कि इससे अधिक कुछ करना पड़ेगा; परंतु अपने विषयमें मुझे जैसा पहले अनुभव हुअा है उसीके अनुसार यहां भी एकाएक मुझपर एक जिम्मेदारी या पड़ी। - सम्राट्की नवीन सुधारों के संबंधम घोषणा प्रकाशित हो चुकी थी। वह मेरे नजदीक पूर्ण संतोषजनक नहीं थी। औरोंको तो बिलकुल ही पसंद नहीं आई। सुधारोंमें भी खामी थी; परंतु उस समय मेरा यही खयाल हुआ कि हम उनको स्वीकार कर सकते हैं। सम्राट्के घोषणापत्रमें मुझे लार्ड सिंहका हाथ दिखाई दिया था। उसकी भाषामें, उस समय, मेरी आंखें आशाकी किरणें देख रही थीं; हालांकि अनुभवी लोकमान्य, चित्तरंजन दास इत्यादि योद्धा सिर हिला रहे थे। भारत-भूषण मालवीयजी मध्यस्थ थे । - मेरा डेरा उन्होंने अपने ही कमरे में रक्खा था। उनकी सादगीकी झलक मुझे काशी में विश्व-विद्यालयके शिलारोपणके समय हुई थी; परंतु इस समय तो उन्होंने मुझे अपने ही कमरेमें स्थान दिया था। इसलिए मैं उनकी सारी दिनचर्या देख सका और मुझे आनंदके साथ आश्चर्य हुआ था। उनका कमरा मानो गरीबकी धर्मशाला थी। उसमें कहीं भी रास्ता नहीं छूटा था, जहां-तहां लोग डेरा डाले हुए थे। न उसमें एकांत की गुंजाइश थी, न फैलाव की । जो चाहता वहां आ जाता और उनका मनमाना समय ले जाता। इस दरबेके एक कोनेमें मेरा दरबार अर्थात् खटिया लगी हुई थी। पर यह अध्याय मुझे मालवीयजीके रहन-सहनके वर्णनमें खर्च नहीं करना है। इसलिए अपन विषयपर आ जाता हूं।
SR No.100001
Book TitleAtmakatha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohandas Karamchand Gandhi, Gandhiji
PublisherSasta Sahitya Mandal Delhi
Publication Year1948
Total Pages518
LanguageHindi
ClassificationInterfaith & Interfaith
File Size70 MB
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