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आत्म-कथा : भाग ५
उन्होंने कहा
"जबतक आप दूध न लेंगे तबतक आपका शरीर नहीं पनपेगा । शरीरकी पुष्टिके लिए तो आपको दूध लेना चाहिए और लोहे व संखियेकी पिचकारी (इंजेक्शन) लेनी चाहिए। यदि आप इतना करें तो मैं आपका शरीर फिरसे पुष्ट करनेकी 'गैरंटी' लेता हूं।"
. “आप पिचकारी भले ही दें, लेकिन मैं दूध नहीं लूंगा।" मैंने जवाब दिया । . “आपकी दूधकी प्रतिज्ञा क्या है ? " डाक्टरने पूछा ।
"गाय-भैसके फूंका लगाकर दूध निकालनेकी क्रिया की जाती है। यह जाननेपर मुझे दूधके प्रति तिरस्कार हो आया, और यह तो मैं सदा मानता ही था कि वह मनुष्यकी खूराक नहीं है, इसलिए मैंने दूध छोड़ दिया है ।" मैंने कहा ।
"तब तो बकरीका दूध लिया जा सकता है।" कस्तूरबाई, जो मेरी खाटके पास ही खड़ी थीं, बोल उठीं ।
"बकरीका दूध लें तो मेरा काम चल जायगा।" डाक्टर दलाल बीचमें
ही बोल उठे ।
मैं झुका। सत्याग्रहकी लड़ाईके मोहने मुझमें जीवनका लोभ पैदा कर दिया था और मैंने प्रतिज्ञाके अक्षरोंके पालनसे संतोष मानकर उसकी आत्माका हनन किया। दूधकी प्रतिज्ञा लेते समय यद्यपि मेरी दृष्टिके सामने गाय-भैंसका ही विचार था, फिर भी मेरी प्रतिज्ञा दूधमात्रके लिए समझी जानी चाहिए, और जबतक मैं पशुके दूध-मात्रको मनुष्यको खूराकके लिए निषिद्ध मानता हूं तबतक मुझे उसे लेने का अधिकार नहीं है । यह जानते हुए भी बकरीका दूध लेनेके लिए मैं तैयार हो गया। इस तरह सत्यके एक पुजारीने सत्याग्रहकी लड़ाईकेलिए जीवित रहनेकी इच्छा रखकर अपने सत्यको धब्बा लगाया ।
मेरे इस कार्यकी वेदना अबतक नहीं मिटी है और बकरीका दूध छोड़नेकी धुन अब भी लगी ही रहती है । बकरीका दूध पीते वक्त रोज मैं कष्ट अनुभव करता हूं। परंतु सेवा करनेका महासूक्ष्म मोह जो मेरे पीछे लगा है, मुझे छोड़ नहीं रहा है । अहिंसा की दृष्टिसे खूराकके अपने प्रयोग मुझे बड़े प्रिय हैं। उनमें मुझे आनंद आता है और यही मेरा विनोद भी है। परंतु बकरीका दूध मुझे इस