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अध्याय २८ : मृत्यु - शैव्यापर
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मशविरा किया और बड़ी हिफाजत से मुझे वे अपने मिरजापुरवाले बंगले पर ले गये । मैं यह तो जरूर कहूंगा कि इस बीमारी में जो निर्मल निष्काम सेवा मुझे मिली उससे अधिक सेवा तो कोई नहीं प्राप्त कर सकता । मंद ज्वर आने लगा और शरीर भी क्षीण होता चला। मालूम हुआ कि बीमारी बहुत दिनतक चलेगी और शायद में बिस्तर से भी न उठ सकूं । अंबालाल सेठके बंगले में प्रेमसे घिरा हुआ होनेपर भी मेरे चित्तमें प्रशांति पैदा हुई और मैंने उनसे मुझे श्राश्रममें पहुंचाने के लिए कहा । मेरा अत्यंत प्राग्रह देकर वह मुझे आश्रम ले आये । आश्रम में यह पीड़ा भोग रहा था कि इतने में वल्लभभाई यह खबर लाये कि जर्मनी पूरी तरह हार गया और कमिश्नरने कहलाया है कि अब रंगरूटोंकी भरती करनेकी जरूरत नहीं है । इसलिए रंगरूटोंकी भरती करनेकी चिंता से मैं मुक्त हो गया और इससे मुझे शांति मिली।
अब पानीके उपचारोंपर शरीर टिका हुआ था । दर्द चला गया पर शरीर किसी तरह पनप नहीं रहा था । वैद्य और डाक्टर मित्र अनेक प्रकारकी सलाह देते थे । पर मैं किसी तरह दवा लेने के लिए तैयार न हुआ ।
दो-तीन मित्रोंने दूध लेनेमें कोई बाधा हो तो मांस का शोरवा लेनेकी सिफारिश की और अपने कथन की पुष्टिमें आयुर्वेदसे इस आशय के प्रमाण बताये कि दवा बतौर मांसादि चाहे जिस वस्तुका सेवन करने में कोई हानि नहीं । एक मिसने अंडे खाने की सलाह दी । पर उनमें से स्वीकार न कर सका । सबके लिए मेरा तो एक ही जवाब था ।
किसीकी भी सलाहको मैं
खाद्याखाद्यका सवाल मेरे लिए महज शास्त्रोंके श्लोकोंपर निर्भर न था । उसका तो मेरे जीवन के साथ स्वतंत्र रीतिसे निर्माण हुआ था । हर कोई चीज खाकर हर किसी तरह जीनेका मुझे जरा भी लोभ न था । अपने पुत्रों, स्त्री और स्नेहियों के लिए मैंने जिस धर्मपर अमल किया उसका त्याग में अपने लिए कैसे कर सकता था ।
इस तरह इस बहुत लंबी बीमारीमें, जो कि गंभीरताके खयालसे मेरे जीवन में मुझे पहले ही पहल हुई थी, मुझे धर्म - निरीक्षण करनेका तथा उसे कसौटीपर चढ़ानेका अलभ्य लाभ मिला। एक रात तो मैं जीवनसे बिल्कुल निराश हो गया था । मुझे मालूम हुआ कि अंतकाल आ पहुंचा। श्रीमती अनसूयाबहनको